शनिवार, 31 दिसंबर 2011

हिन्दू धर्मं के ३३ करोड़ देवी-देवताओं का रहस्य :-

भगवान, परमात्मा या ईश्वर एक है फिर भी शास्त्रों के अनुसार देवी-देवताओं की अनेक रूप बताए गए हैं। हिंदू धर्म के अनुसार 33 करोड़ देवी-देवता हैं, ऐसा माना जाता है। प्राचीन काल से असंख्य देवी-देवताओं को पूजने की परंपराएं चलन में है। इस संबंध में सामान्यत: सभी की जिज्ञासा रहती है कि क्या वाकई में हिंदू धर्म में 33 करोड़ देवी-देवता हैं।
दरअसल वेद-पुराणों के अनुसार 33 कोटि देवता बताए गए हैं। यहां कोटि शब्द ही बोलचाल की भाषा में करोड़ में बदल गया। अत: ऐसा माना जाने लगा कि हिंदूओं के 33 करोड़ देवी-देवता हैं, जबकि वास्तव में 33 कोटि देवी-देवता हैं।
33 कोटि में आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, इंद्र और प्रजापति शामिल है। जबकि कुछ विद्वानों के अनुसार इंद्र और प्रजापति के स्थान पर दो अश्विनी कुमार का नाम लिया जाता है।
आठ वसुओं में आप, ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष, प्रभाष शामिल हैं।
ग्यारह रुद्र इस प्रकार हैं- मनु, मन्यु, शिव, महत, ऋतुध्वज, महिनस, उम्रतेरस, काल, वामदेव, भव और धृत-ध्वज।
बारह आदित्य इस प्रकार हैं- अंशुमान, अर्यमन, इंद्र, त्वष्टा, धातु, पर्जन्य, पूषा, भग, मित्र, वरुण, वैवस्वत और विष्णु।

कपड़े पहनते समय सिक्के गिरे तो होगा कुछ अच्छा :-


काफी लोगों के साथ ऐसा होता है कि कहीं जाते वक्त या कपड़े पहनते समय पैसे गिर जाते हैं। ज्योतिष के अनुसार इसे शकुन माना जाता है और निकट भविष्य में इसके शुभ फल प्राप्त होते हैं।

शकुन और अपशकुन को ज्योतिष में काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। किसी भी महत्वपूर्ण कार्य को करने से पहले कुछ ना कुछ शकुन या अपशकुन अवश्य होते हैं उन्हें समझना पड़ता है। इन्हीं छोटी-छोटी घटनाओं में कार्य की सफलता या असफलता के संकेत छुपे होते हैं। आजकल ऐसी बातों को अंधविश्वास भी माना जाता है लेकिन ज्योतिष एक विज्ञान ही है और इसके अनुसार ऐसी घटनाओं का संबंध हमारे भविष्य से जुड़ा होता है।
अगर आप कहीं जा रहे हैं या आप कपड़े पहन रहे हैं और जेब से पैसे गिरें तो इसे शुभ संकेत मानना चाहिए। ऐसा होने पर निकट भविष्य में आपको धन प्राप्ति के योग बनते हैं। इसी प्रकार यदि किसी लेन-देन के समय आपके हाथ से पैसा छूट जाए तो भी इसे शुभ माना जाता है। साथ ही यदि कपड़े बदलते वक्त भी ऐसा हो तो शुभ होता है। इन घटनाओं का फल कितने समय में मिलेगा इसका कोई निश्चित दिन नहीं है लेकिन शुभ फल अवश्य ही प्राप्त होता है।

धन प्राप्त करनेका छोटा सा उपाय :-


पैसा या धन की चाहत प्राचीन काल से ही बनी हुई है। आज भी जैसे-जैसे आधुनिक सुविधाओं का विकास हो रहा है ठीक वैसी पैसों की आवश्यकता भी बढ़ती जा रही है। अधिकांश लोग परेशानियों के साथ जीवन यापन कर रहे हैं और पैसों की तंगी से जुझ रहे हैं। दिन-रात कड़ी मेहनत के बाद भी पर्याप्त धन अर्जित नहीं कर पाते। यदि आप भी पैसों की तंगी से त्रस्त हैं तो प्रतिदिन एक छोटा सा उपाय अपनाएं ;-

शास्त्रों के अनुसार गाय को बहुत पवित्र और पूजनीय माना गया है। इसी वजह से गौमाता से प्राप्त होने वाली सभी चीजों का वैद-पुराणों में काफी महत्व बताया गया है। अत: गाय का गोबर भी कई समस्याओं को समाप्त करने में सक्षम है। प्रतिदिन घर के बाहर किसी साफ और स्वस्थ स्थान पर गोबर से छोटा सा चौकर (लिपें) बनाएं। इस चौकार स्थान पर धन की देवी महालक्ष्मी के पैरों का निशान बनाएं। महालक्ष्मी के पैरा पर कंकू, चावल चढ़ाएं। इस प्रकार प्रतिदिन करें। ऐसा करने से आपके घर से पैसों की तंगी भाग जाएगी और महालक्ष्मी का वास हो जाएगा।
ध्यान रखें कि यह उपाय ऐसे स्थान पर करें जहां किसी के पैर न लगे। अन्यथा उपाय का प्रभाव कम हो जाएगा। इसके साथ अपनी मेहनत पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ करें। किसी भी प्रकार के अधार्मिक कर्मों से खूद को दूर रखें।

शनि को प्रसन्न करने के उपाय :-

इन दिनों शनि देव की चर्चाओं का दौर है क्योंकि विगत 15 नवंबर को शनि कन्या राशि छोड़कर तुला राशि में प्रवेश करेगा। शनि का राशि बदलना ज्योतिष के अनुसार बहुत बड़ी घटना है। इसका हर व्यक्ति पर सीधा पड़ेगा। अत: शनि को प्रसन्न करने के लिए सभी कुछ न कुछ उपाय अवश्य करें।
शनि की प्रसन्नता के लिए कई उपाय बताए जाते हैं लेकिन कुछ ऐसे सटीक उपाय है जिनमें से यदि आप कोई एक भी करते हैं तो शनि की कृपा प्राप्त हो जाती है। ये उपाय बेहद सरल हैं और कोई व्यक्ति आसानी से अपना सकता है।

शनि को प्रसन्न करने के उपाय-
०१:- शनि देव की प्रतिमा पर तेल चढ़ाएं। तेल चढ़ाने से पहले तेल में अपना मुख अवश्य देखें।
०२:- शनि स्तोत्र पाठ करें या मंत्र: ऊं शं शनैश्चराय नम: का जप करें।
०३:- शनि को प्रसन्न करने का सटीक उपाय है हनुमानजी की आराधना। पवनपुत्र के मंदिर में
        प्रतिदिन या शनि-मंगलवार को हनुमान चालिसा का पाठ करें।
०४:- शनिवार के दिन हनुमानजी के समक्ष तेल का दीपक लगाएं और मंत्र: सीताराम का जप करें।
०५:- शनिवार को शिवलिंग पर दूध और जल अर्पित करें। बिल्वपत्र चढ़ाएं।
०६:- पीपल के पेड़ में जल चढ़ाएं और सात परिक्रमा करें।
०७:- शनिवार के दिन शनि की काली वस्तुओं का दान करें।

इन सात उपायों में से कोई एक उपाय भी यदि आप शनिवार को करते हैं तो निश्चित ही आपको शनि की कृपा प्राप्त होगी। ध्यान रखें शनि बुरे कर्म करने वालों के लिए बहुत क्रूर रूप धारण कर लेते हैं। अत: धार्मिक कार्यों में ध्यान लगाएं और सद्कर्म करें।

घर में बांसूरी रखना होता है सुख-समृद्धि कारक :-

घर में सुख-समृद्धि बनी रहे इसके लिए सभी कई प्रकार के उपाय करते हैं। कुछ उपाय धर्म से संबंधित होते हैं तो कुछ ज्योतिष के और कुछ वास्तु से संबंधित। इन सभी उपायों को अपनाने से संभवत: घर से नेगेटिव ऊर्जा दूर हो जाती है। यदि आपके घर में कुछ नेगेटिव हो रहा है तो यह परंपरागत उपाय अपनाएं। पुराने समय से ही घर में सुख-समृद्धि और धन की पूर्ति बनाए रखने के लिए एक सटीक परंपरागत उपाय अपनाया जाता रहा है। यह उपाय है :-
घर में बांसूरी रखना । जिस घर में बांसूरी रखी होती है वहां के लोगों में परस्पर तो बना रहता है साथ ही श्रीकृष्ण की कृपा से सभी दुख और पैसों की तंगी भी दूर हो जाती है।
                                     शास्त्रों के अनुसार बांसूरी भगवान श्रीकृष्ण को अतिप्रिय है। वे सदा ही इसे अपने साथ ही रखते हैं। इसी वजह से इसे बहुत ही पवित्र और पूजनीय माना जाता है। साथ ही ऐसा माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण जब भी बांसूरी बजाते तो सभी गोपियां प्रेम वश प्रभु के समक्ष जा पहुंचती थीं। बांसूरी से निकलने वाला स्वर प्रेम बरसाने वाला ही है। इसी वजह से जिस घर में बांसूरी रखी होती है वहां प्रेम और धन की कोई कमी नहीं रहती है।
                                   सामान्यत: घर में बांस की हुई बांसूरी ही रखना चाहिए। वास्तु के अनुसार इस बांसूरी से घर के वातावरण में मौजूद समस्त नेगेटिव एनर्जी समाप्त हो जाती है और सकारात्मक ऊर्जा सक्रिय हो जाती है। परिवार के सदस्यों के विचार सकारात्मक होते हैं जिससे उन्हें सभी कार्यों में सफलता प्राप्त होती है।

श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्‌ :-

शुक्लांबरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम्।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत सर्वविघ्नोपशान्तये॥१॥


यस्य द्विरदवक्त्राद्याः पारिषद्याः परः शतम्‌।
विघ्नं निघ्नन्ति सततं विष्वकसेनं तमाश्रये॥२॥


व्यासं वसिष्ठनप्तारं शक्तेः पौत्रमकल्मषम्‌।
पराशरात्मजं वन्दे शुकतातं तपोनिधिम॥३॥


व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे।
नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नमः॥४॥

अविकाराय शुद्धाय नित्याय परमात्मने।
सदैकरूपरूपाय विष्णवे सर्वजिष्णवे॥५॥

यस्य स्मरणमात्रेण जन्मसंसारबन्धनात्।
विमुच्यते नमस्तस्मै विष्णवे प्रभविष्णवे॥६॥
ॐ नमो विष्णवे प्रभविष्णवे।

श्रीवैशम्पायन उवाच —
श्रुत्वा धर्मानशेषेण पावनानि च सर्वशः।
युधिष्ठिरः शान्तनवं पुनरेवाभ्यभाषत॥७॥


युधिष्ठिर उवाच —
किमेकं दैवतं लोके किं वाप्येकं परायणम्।
स्तुवन्तः कं कमर्चन्तः प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम्॥८॥

को धर्मः सर्वधर्माणां भवतः परमो मतः।
किं जपन्मुच्यते जन्तुर्जन्मसंसारबन्धनात्॥९॥

भीष्म उवाच —
जगत्प्रभुं देवदेवमनन्तं पुरुषोत्तमम्।
स्तुवन नामसहस्रेण पुरुषः सततोत्थितः॥१०॥

तमेव चार्चयन्नित्यं भक्त्या पुरुषमव्ययम्।
ध्यायन स्तुवन नमस्यंश्च यजमानस्तमेव च॥११॥


अनादिनिधनं विष्णुं सर्वलोकमहेश्वरम्।
लोकाध्यक्षं स्तुवन्नित्यं सर्वदुःखातिगो भवेत्॥१२॥

ब्रह्मण्यं सर्वधर्मज्ञं लोकानां कीर्तिवर्धनम्।
लोकनाथं महद्भूतं सर्वभूतभवोद्भवम्॥१३॥


एष मे सर्वधर्माणां धर्मोऽधिकतमो मतः।
यद्भक्त्या पुण्डरीकाक्षं स्तवैरर्चेन्नरः सदा॥१४॥

परमं यो महत्तेजः परमं यो महत्तपः।
परमं यो महद्ब्रह्म परमं यः परायणम्॥१५॥


पवित्राणां पवित्रं यो मङ्गलानां च मङ्गलम्।
दैवतं दैवतानां च भूतानां योऽव्ययः पिता॥१६॥

यतः सर्वाणि भूतानि भवन्त्यादियुगागमे।
यस्मिंश्च प्रलयं यान्ति पुनरेव युगक्षये॥१७॥


तस्य लोकप्रधानस्य जगन्नाथस्य भूपते।
विष्णोर्नामसहस्रं मे शृणु पापभयापहम्॥१८॥

यानि नामानि गौणानि विख्यातानि महात्मनः।
ऋषिभिः परिगीतानि तानि वक्ष्यामि भूतये॥१९॥


ऋषिर्नाम्नां सहस्रस्य वेदव्यासो महामुनिः।
छन्दोऽनुष्टुप् तथा देवो भगवान् देवकीसुतः॥२०॥

अमृतांशूद्भवो बीजं शक्तिर्देवकिनन्दनः।
त्रिसामा हृदयं तस्य शान्त्यर्थे विनियोज्यते॥२१॥


विष्णुं जिष्णुं महाविष्णुं प्रभविष्णुं महेश्वरम्‌।
अनेकरूप दैत्यान्तं नमामि पुरुषोत्तमं॥२२॥

॥विनयोग॥
श्रीवेदव्यास उवाच —
ॐ अस्य श्रीविष्णोर्दिव्यसहस्रनामस्तोत्रमहामन्त्रस्य॥
श्री वेदव्यासो भगवान ऋषिः। अनुष्टुप् छन्दः।
श्रीमहाविष्णुः परमात्मा श्रीमन्नारायणो देवता।
अमृतांशूद्भवो भानुरिति बीजम्‌।
देवकीनन्दनः स्रष्टेति शक्तिः।
उद्भवः क्षोभणो देव इति परमो मन्त्रः।
शङ्खभृन्नन्दकी चक्रीति कीलकम्।
शार्ङ्गधन्वा गदाधर इत्यस्त्रम्।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्य इति नेत्रम्‌।
त्रिसामा सामगः सामेति कवचम्।
आनन्दं परब्रह्मेति योनिः।
ऋतुः सुदर्शनः काल इति दिग्बन्धः॥
श्रीविश्वरूप इति ध्यानम्‌।
श्रीमहाविष्णुप्रीत्यर्थं सहस्रनामजपे विनियोगः॥

॥अथ न्यासः॥
ॐ शिरसि वेदव्यासऋषये नमः।
मुखे अनुष्टुप्छन्दसे नमः।
हृदि श्रीकृष्णपरमात्मदेवतायै नमः।
गुह्ये अमृतांशूद्भवो भानुरिति बीजाय नमः।
पादयोर्देवकीनन्दनः स्रष्टेति शक्तये नमः।
सर्वाङ्गे शङ्खभृन्नन्दकी चक्रीति कीलकाय नमः।
करसंपूटे मम श्रीकृष्णप्रीत्यर्थे जपे विनियोगाय नमः॥
इति ऋषयादिन्यासः॥

॥अथ करन्यासः॥
ॐ विश्वं विष्णुर्वषट्कार इत्यङ्गुष्ठाभ्यां नमः।
अमृतांशूद्भवो भानुरिति तर्जनीभ्यां नमः।
ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद्ब्रह्मेति मध्यमाभ्यां नमः।
सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्य इत्यनामिकाभ्यां नमः।
निमिषोऽनिमिषः स्रग्वीति कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्य इति करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
इति करन्यासः॥

॥अथ षडङ्गन्यासः॥
ॐ विश्वं विष्णुर्वषट्कार इति हृदयाय नमः।
अमृतांशूद्भवो भानुरिति शिरसे स्वाहा।
ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद्ब्रह्मेति शिखायै वषट्।
सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्य इति कवचाय हुम्।
निमिषोऽनिमिषः स्रग्वीति नेत्रत्रयाय वौषट्।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्य इत्यस्त्राय फट्।
इति षडङ्गन्यासः॥

॥अथ ध्यानम्।
क्षीरोदन्वत्प्रदेशे शुचिमणिविलसत्सैकतेर्मौक्तिकानां,
मालाकॢप्तासनस्थः स्फटिकमणिनिभैर्मौक्तिकैर्मण्डिताङ्गः।
शुभ्रैरभ्रैरदभ्रैरुपरिविरचितैर्मुक्तपीयूष वर्षैः,
आनन्दी नः पुनीयादरिनलिनगदा शङ्खपाणिर्मुकुन्दः॥१॥

भूः पादौ यस्य नाभिर्वियदसुरनिलश्चन्द्र सूर्यौ च नेत्रे
कर्णावाशाः शिरो द्यौर्मुखमपि दहनो यस्य वास्तेयमब्धिः।
अन्तःस्थं यस्य विश्वं सुरनरखगगोभोगिगन्धर्वदैत्यैः
चित्रं रंरम्यते तं त्रिभुवन वपुषं विष्णुमीशं नमामि॥२॥


ॐ शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
                               विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
                             वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्॥३॥


मेघश्यामं पीतकौशेयवासं श्रीवत्साङ्कं कौस्तुभोद्भासिताङ्गम्।
पुण्योपेतं पुण्डरीकायताक्षं विष्णुं वन्दे सर्वलोकैकनाथम्॥४॥

नमः समस्तभूतानामादिभूताय भूभृते।
अनेकरूपरूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे॥५॥

सशङ्खचक्रं सकिरीटकुण्डलं
                                     सपीतवस्त्रं सरसीरुहेक्षणम् |
सहारवक्षःस्थलकौस्तुभश्रियं
                      नमामि विष्णुं शिरसा चतुर्भुजम्॥६॥

छायायां पारिजातस्य हेमसिंहासनोपरि
                                           आसीनमम्बुदश्याममायताक्षमलंकृतम् |
चन्द्राननं चतुर्बाहुं श्रीवत्साङ्कित वक्षसं
                             रुक्मिणी सत्यभामाभ्यां सहितं कृष्णमाश्रये॥७॥

॥स्तोत्रम्‌ ॥
॥हरिः ॐ॥
विश्वं विष्णुर्वषट्कारो भूतभव्यभवत्प्रभुः।
भूतकृद्भूतभृद्भावो भूतात्मा भूतभावनः॥१॥

पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमा गतिः।
अव्ययः पुरुषः साक्षी क्षेत्रज्ञोऽक्षर एव च॥२॥


योगो योगविदां नेता प्रधानपुरुषेश्वरः।
नारसिंहवपुः श्रीमान् केशवः पुरुषोत्तमः॥३॥

सर्वः शर्वः शिवः स्थाणुर्भूतादिर्निधिरव्ययः।
संभवो भावनो भर्ता प्रभवः प्रभुरीश्वरः॥४॥


स्वयंभूः शम्भुरादित्यः पुष्कराक्षो महास्वनः।
अनादिनिधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः॥५॥

अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभोऽमरप्रभुः।
विश्वकर्मा मनुस्त्वष्टा स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः॥६॥


अग्राह्यः शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः।
प्रभूतस्त्रिककुब्धाम पवित्रं मङ्गलं परम्॥७॥

ईशानः प्राणदः प्राणो ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः।
हिरण्यगर्भो भूगर्भो माधवो मधुसूदनः॥८॥


ईश्वरो विक्रमी धन्वी मेधावी विक्रमः क्रमः।
अनुत्तमो दुराधर्षः कृतज्ञः कृतिरात्मवान्॥९॥


सुरेशः शरणं शर्म विश्वरेताः प्रजाभवः।
अहः संवत्सरो व्यालः प्रत्ययः सर्वदर्शनः॥१०॥


अजः सर्वेश्वरः सिद्धः सिद्धिः सर्वादिरच्युतः।
वृषाकपिरमेयात्मा सर्वयोगविनिःसृतः॥११॥

वसुर्वसुमनाः सत्यः समात्माऽसम्मितः समः।
अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः॥१२॥


रुद्रो बहुशिरा बभ्रुर्विश्वयोनिः शुचिश्रवाः।
अमृतः शाश्वत स्थाणुर्वरारोहो महातपाः॥१३॥


सर्वगः सर्वविद्भानुर्विष्वक्सेनो जनार्दनः।
वेदो वेदविदव्यङ्गो वेदाङ्गो वेदवित् कविः॥१४॥

लोकाध्यक्षः सुराध्यक्षो धर्माध्यक्षः कृताकृतः।
चतुरात्मा चतुर्व्यूहश्चतुर्दंष्ट्रश्चतुर्भुजः॥१५॥


भ्राजिष्णुर्भोजनं भोक्ता सहिष्णुर्जगदादिजः।
अनघो विजयो जेता विश्वयोनिः पुनर्वसुः॥१६॥


उपेन्द्रो वामनः प्रांशुरमोघः शुचिरूर्जितः।
अतीन्द्रः संग्रहः सर्गो धृतात्मा नियमो यमः॥१७॥


वेद्यो वैद्यः सदायोगी वीरहा माधवो मधुः।
अतीन्द्रियो महामायो महोत्साहो महाबलः॥१८॥

महाबुद्धिर्महावीर्यो महाशक्तिर्महाद्युतिः।
अनिर्देश्यवपुः श्रीमानमेयात्मा महाद्रिधृक्॥१९॥


महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवासः सतां गतिः।
अनिरुद्धः सुरानन्दो गोविन्दो गोविदां पतिः॥२०॥


मरीचिर्दमनो हंसः सुपर्णो भुजगोत्तमः।
हिरण्यनाभः सुतपाः पद्मनाभः प्रजापतिः॥२१॥


अमृत्युः सर्वदृक् सिंहः सन्धाता सन्धिमान् स्थिरः।
अजो दुर्मर्षणः शास्ता विश्रुतात्मा सुरारिहा॥२२॥

गुरुर्गुरुतमो धाम सत्यः सत्यपराक्रमः।
निमिषोऽनिमिषः स्रग्वी वाचस्पतिरुदारधीः॥२३॥


अग्रणीर्ग्रामणीः श्रीमान् न्यायो नेता समीरणः।
सहस्रमूर्धा विश्वात्मा सहस्राक्षः सहस्रपात्॥२४॥

आवर्तनो निवृत्तात्मा संवृतः संप्रमर्दनः।
अहः संवर्तको वह्निरनिलो धरणीधरः॥२५॥


सुप्रसादः प्रसन्नात्मा विश्वधृग्विश्वभुग्विभुः।
सत्कर्ता सत्कृतः साधुर्जह्नुर्नारायणो नरः॥२६॥

असंख्येयोऽप्रमेयात्मा विशिष्टः शिष्टकृच्छुचिः।
सिद्धार्थः सिद्धसंकल्पः सिद्धिदः सिद्धिसाधनः॥२७॥


वृषाही वृषभो विष्णुर्वृषपर्वा वृषोदरः।
वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुतिसागरः॥२८॥

सुभुजो दुर्धरो वाग्मी महेन्द्रो वसुदो वसुः।
नैकरूपो बृहद्रूपः शिपिविष्टः प्रकाशनः॥२९॥


ओजस्तेजोद्युतिधरः प्रकाशात्मा प्रतापनः।
ऋद्धः स्पष्टाक्षरो मन्त्रश्चन्द्रांशुर्भास्करद्युतिः॥३०॥

अमृतांशूद्भवो भानुः शशबिन्दुः सुरेश्वरः।
औषधं जगतः सेतुः सत्यधर्मपराक्रमः॥३१॥


भूतभव्यभवन्नाथः पवनः पावनोऽनलः।
कामहा कामकृत्कान्तः कामः कामप्रदः प्रभुः॥३२॥

युगादिकृद्युगावर्तो नैकमायो महाशनः।
अदृश्यो व्यक्तरूपश्च सहस्रजिदनन्तजित्॥३३॥


इष्टोऽविशिष्टः शिष्टेष्टः शिखण्डी नहुषो वृषः।
क्रोधहा क्रोधकृत्कर्ता विश्वबाहुर्महीधरः॥३४॥

अच्युतः प्रथितः प्राणः प्राणदो वासवानुजः।
अपांनिधिरधिष्ठानमप्रमत्तः प्रतिष्ठितः॥३५॥


स्कन्दः स्कन्दधरो धुर्यो वरदो वायुवाहनः।
वासुदेवो बृहद्भानुरादिदेवः पुरन्दरः॥३६॥

अशोकस्तारणस्तारः शूरः शौरिर्जनेश्वरः।
अनुकूलः शतावर्तः पद्मी पद्मनिभेक्षणः॥३७॥


पद्मनाभोऽरविन्दाक्षः पद्मगर्भः शरीरभृत्।
महर्द्धिरृद्धो वृद्धात्मा महाक्षो गरुडध्वजः॥३८॥

अतुलः शरभो भीमः समयज्ञो हविर्हरिः।
सर्वलक्षणलक्षण्यो लक्ष्मीवान् समितिञ्जयः॥३९॥


विक्षरो रोहितो मार्गो हेतुर्दामोदरः सहः।
महीधरो महाभागो वेगवानमिताशनः॥४०॥

उद्भवः क्षोभणो देवः श्रीगर्भः परमेश्वरः।
करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनो गुहः॥४१॥


व्यवसायो व्यवस्थानः संस्थानः स्थानदो ध्रुवः।
परर्द्धिः परमस्पष्टस्तुष्टः पुष्टः शुभेक्षणः॥४२॥

रामो विरामो विरजो मार्गो नेयो नयोऽनयः।
वीरः शक्तिमतां श्रेष्ठो धर्मो धर्मविदुत्तमः॥४३॥


वैकुण्ठः पुरुषः प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः।
हिरण्यगर्भः शत्रुघ्नो व्याप्तो वायुरधोक्षजः॥४४॥

ऋतुः सुदर्शनः कालः परमेष्ठी परिग्रहः।
उग्रः संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्वदक्षिणः॥४५॥

विस्तारः स्थावरस्थाणुः प्रमाणं बीजमव्ययम्।
अर्थोऽनर्थो महाकोशो महाभोगो महाधनः॥४६॥


अनिर्विण्णः स्थविष्ठोऽभूर्धर्मयूपो महामखः।
नक्षत्रनेमिर्नक्षत्री क्षमः क्षामः समीहनः॥४७॥

यज्ञ इज्यो महेज्यश्च क्रतुः सत्रं सतां गतिः।
सर्वदर्शी विमुक्तात्मा सर्वज्ञो ज्ञानमुत्तमम्॥४८॥


सुव्रतः सुमुखः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुहृत्।
मनोहरो जितक्रोधो वीरबाहुर्विदारणः॥४९॥

स्वापनः स्ववशो व्यापी नैकात्मा नैककर्मकृत्।
वत्सरो वत्सलो वत्सी रत्नगर्भो धनेश्वरः॥५०॥


धर्मगुब्धर्मकृद्धर्मी सदसत्क्षरमक्षरम्।
अविज्ञाता सहस्रांशुर्विधाता कृतलक्षणः॥५१॥

गभस्तिनेमिः सत्त्वस्थः सिंहो भूतमहेश्वरः।
आदिदेवो महादेवो देवेशो देवभृद्गुरुः॥५२॥


उत्तरो गोपतिर्गोप्ता ज्ञानगम्यः पुरातनः।
शरीरभूतभृद्भोक्ता कपीन्द्रो भूरिदक्षिणः॥५३॥

सोमपोऽमृतपः सोमः पुरुजित्पुरुसत्तमः।
विनयो जयः सत्यसंधो दाशार्हः सात्त्वतांपतिः॥५४॥


जीवो विनयिता साक्षी मुकुन्दोऽमितविक्रमः।
अम्भोनिधिरनन्तात्मा महोदधिशयोऽन्तकः॥५५॥

अजो महार्हः स्वाभाव्यो जितामित्रः प्रमोदनः।
आनन्दो नन्दनो नन्दः सत्यधर्मा त्रिविक्रमः॥५६॥


महर्षिः कपिलाचार्यः कृतज्ञो मेदिनीपतिः।
त्रिपदस्त्रिदशाध्यक्षो महाशृङ्गः कृतान्तकृत्॥५७॥

महावराहो गोविन्दः सुषेणः कनकाङ्गदी।
गुह्यो गभीरो गहनो गुप्तश्चक्रगदाधरः॥५८॥


वेधाः स्वाङ्गोऽजितः कृष्णो दृढः संकर्षणोऽच्युतः।
वरुणो वारुणो वृक्षः पुष्कराक्षो महामनाः॥५९॥

भगवान् भगहाऽऽनन्दी वनमाली हलायुधः।
आदित्यो ज्योतिरादित्यः सहिष्णुर्गतिसत्तमः॥६०॥


सुधन्वा खण्डपरशुर्दारुणो द्रविणप्रदः।
दिवःस्पृक् सर्वदृग्व्यासो वाचस्पतिरयोनिजः॥६१॥

त्रिसामा सामगः साम निर्वाणं भेषजं भिषक्।
संन्यासकृच्छमः शान्तो निष्ठा शान्तिः परायणम्॥६२॥


शुभाङ्गः शान्तिदः स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः।
गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः॥६३॥

अनिवर्ती निवृत्तात्मा संक्षेप्ता क्षेमकृच्छिवः।
श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीपतिः श्रीमतांवरः॥६४॥


श्रीदः श्रीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः।
श्रीधरः श्रीकरः श्रेयः श्रीमाँल्लोकत्रयाश्रयः॥६५॥


स्वक्षः स्वङ्गः शतानन्दो नन्दिर्ज्योतिर्गणेश्वरः।
विजितात्माऽविधेयात्मा सत्कीर्तिश्छिन्नसंशयः॥६६॥

उदीर्णः सर्वतश्चक्षुरनीशः शाश्वतस्थिरः।
भूशयो भूषणो भूतिर्विशोकः शोकनाशनः॥६७॥


अर्चिष्मानर्चितः कुम्भो विशुद्धात्मा विशोधनः।
अनिरुद्धोऽप्रतिरथः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः॥६८॥

कालनेमिनिहा वीरः शौरिः शूरजनेश्वरः।
त्रिलोकात्मा त्रिलोकेशः केशवः केशिहा हरिः॥६९॥


कामदेवः कामपालः कामी कान्तः कृतागमः।
अनिर्देश्यवपुर्विष्णुर्वीरोऽनन्तो धनंजयः॥७०॥

ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद् ब्रह्मा ब्रह्म ब्रह्मविवर्धनः।
ब्रह्मविद् ब्राह्मणो ब्रह्मी ब्रह्मज्ञो ब्राह्मणप्रियः॥७१॥


महाक्रमो महाकर्मा महातेजा महोरगः।
महाक्रतुर्महायज्वा महायज्ञो महाहविः॥७२॥

स्तव्यः स्तवप्रियः स्तोत्रं स्तुतिः स्तोता रणप्रियः।
पूर्णः पूरयिता पुण्यः पुण्यकीर्तिरनामयः॥७३॥


मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेता वसुप्रदः।
वसुप्रदो वासुदेवो वसुर्वसुमना हविः॥७४॥

सद्गतिः सत्कृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्परायणः।
शूरसेनो यदुश्रेष्ठः सन्निवासः सुयामुनः॥७५॥


भूतावासो वासुदेवः सर्वासुनिलयोऽनलः।
दर्पहा दर्पदो दृप्तो दुर्धरोऽथापराजितः॥७६॥

विश्वमूर्तिर्महामूर्तिर्दीप्तमूर्तिरमूर्तिमान्।
अनेकमूर्तिरव्यक्तः शतमूर्तिः शताननः॥७७॥


एको नैकः सवः कः किं यत् तत्पदमनुत्तमम्।
लोकबन्धुर्लोकनाथो माधवो भक्तवत्सलः॥७८॥

सुवर्णवर्णो हेमाङ्गो वराङ्गश्चन्दनाङ्गदी।
वीरहा विषमः शून्यो घृताशीरचलश्चलः॥७९॥


अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृक्।
सुमेधा मेधजो धन्यः सत्यमेधा धराधरः॥८०॥

तेजोवृषो द्युतिधरः सर्वशस्त्रभृतां वरः।
प्रग्रहो निग्रहो व्यग्रो नैकशृङ्गो गदाग्रजः॥८१॥


चतुर्मूर्तिश्चतुर्बाहुश्चतुर्व्यूहश्चतुर्गतिः।
चतुरात्मा चतुर्भावश्चतुर्वेदविदेकपात्॥८२॥

समावर्तोऽनिवृत्तात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः।
दुर्लभो दुर्गमो दुर्गो दुरावासो दुरारिहा॥८३॥


शुभाङ्गो लोकसारङ्गः सुतन्तुस्तन्तुवर्धनः।
इन्द्रकर्मा महाकर्मा कृतकर्मा कृतागमः॥८४॥

उद्भवः सुन्दरः सुन्दो रत्ननाभः सुलोचनः।
अर्को वाजसनः शृङ्गी जयन्तः सर्वविज्जयी॥८५॥


सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्यः सर्ववागीश्वरेश्वरः।
महाह्रदो महागर्तो महाभूतो महानिधिः॥८६॥

कुमुदः कुन्दरः कुन्दः पर्जन्यः पावनोऽनिलः।
अमृतांशोऽमृतवपुः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः॥८७॥


सुलभः सुव्रतः सिद्धः शत्रुजिच्छत्रुतापनः।
न्यग्रोधोऽदुम्बरोऽश्वत्थश्चाणूरान्ध्रनिषूदनः॥८८॥

सहस्रार्चिः सप्तजिह्वः सप्तैधाः सप्तवाहनः।
अमूर्तिरनघोऽचिन्त्यो भयकृद्भयनाशनः॥८९॥


अणुर्बृहत्कृशः स्थूलो गुणभृन्निर्गुणो महान्।
अधृतः स्वधृतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्धनः॥९०॥

भारभृत् कथितो योगी योगीशः सर्वकामदः।
आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः॥९१॥


धनुर्धरो धनुर्वेदो दण्डो दमयिता दमः।
अपराजितः सर्वसहो नियन्ताऽनियमोऽयमः॥९२॥

सत्त्ववान् सात्त्विकः सत्यः सत्यधर्मपरायणः।
अभिप्रायः प्रियार्होऽर्हः प्रियकृत् प्रीतिवर्धनः॥९३॥


विहायसगतिर्ज्योतिः सुरुचिर्हुतभुग्विभुः।
रविर्विरोचनः सूर्यः सविता रविलोचनः॥९४॥

अनन्तो हुतभुग्भोक्ता सुखदो नैकजोऽग्रजः।
अनिर्विण्णः सदामर्षी लोकाधिष्ठानमद्भुतः॥९५॥


सनात्सनातनतमः कपिलः कपिरव्ययः।
स्वस्तिदः स्वस्तिकृत्स्वस्ति स्वस्तिभुक्स्वस्तिदक्षिणः॥९६॥


अरौद्रः कुण्डली चक्री विक्रम्यूर्जितशासनः।
शब्दातिगः शब्दसहः शिशिरः शर्वरीकरः॥९७॥


अक्रूरः पेशलो दक्षो दक्षिणः क्षमिणांवरः।
विद्वत्तमो वीतभयः पुण्यश्रवणकीर्तनः॥९८॥

उत्तारणो दुष्कृतिहा पुण्यो दुःस्वप्ननाशनः।
वीरहा रक्षणः सन्तो जीवनः पर्यवस्थितः॥९९॥


अनन्तरूपोऽनन्तश्रीर्जितमन्युर्भयापहः।
चतुरश्रो गभीरात्मा विदिशो व्यादिशो दिशः॥१००॥

अनादिर्भूर्भुवो लक्ष्मीः सुवीरो रुचिराङ्गदः।
जननो जनजन्मादिर्भीमो भीमपराक्रमः॥१०१॥


आधारनिलयोऽधाता पुष्पहासः प्रजागरः।
ऊर्ध्वगः सत्पथाचारः प्राणदः प्रणवः पणः॥१०२॥

प्रमाणं प्राणनिलयः प्राणभृत्प्राणजीवनः।
तत्त्वं तत्त्वविदेकात्मा जन्ममृत्युजरातिगः॥१०३॥


भूर्भुवःस्वस्तरुस्तारः सविता प्रपितामहः।
यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञाङ्गो यज्ञवाहनः॥१०४॥

यज्ञभृद् यज्ञकृद् यज्ञी यज्ञभुग् यज्ञसाधनः।
यज्ञान्तकृद् यज्ञगुह्यमन्नमन्नाद एव च॥१०५॥


आत्मयोनिः स्वयंजातो वैखानः सामगायनः।
देवकीनन्दनः स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः॥१०६॥

शङ्खभृन्नन्दकी चक्री शार्ङ्गधन्वा गदाधरः।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्यः सर्वप्रहरणायुधः॥१०७॥

सर्वप्रहरणायुध ॐ नम इति।

वनमाली गदी शार्ङ्गी शङ्खी चक्री च नन्दकी।
श्रीमान् नारायणो विष्णुर्वासुदेवोऽभिरक्षतु॥१०८॥

श्री वासुदेवोऽभिरक्षतु ॐ नम इति।

॥उत्तरन्यासः॥
भीष्म उवाच —
इतीदं कीर्तनीयस्य केशवस्य महात्मनः।
नाम्नां सहस्रं दिव्यानामशेषेण प्रकीर्तितम्॥१॥

य इदं शृणुयान्नित्यं यश्चापि परिकीर्तयेत्।
नाशुभं प्राप्नुयात्किंचित्सोऽमुत्रेह च मानवः॥२॥


वेदान्तगो ब्राह्मणः स्यात्क्षत्रियो विजयी भवेत्।
वैश्यो धनसमृद्धः स्याच्छूद्रः सुखमवाप्नुयात्॥३॥

धर्मार्थी प्राप्नुयाद्धर्ममर्थार्थी चार्थमाप्नुयात्।
कामानवाप्नुयात्कामी प्रजार्थी चाप्नुयात्प्रजाम्॥४॥


भक्तिमान् यः सदोत्थाय शुचिस्तद्गतमानसः।
सहस्रं वासुदेवस्य नाम्नामेतत्प्रकीर्तयेत्॥५॥

यशः प्राप्नोति विपुलं ज्ञातिप्राधान्यमेव च।
अचलां श्रियमाप्नोति श्रेयः प्राप्नोत्यनुत्तमम्॥६॥


न भयं क्वचिदाप्नोति वीर्यं तेजश्च विन्दति।
भवत्यरोगो द्युतिमान्बलरूपगुणान्वितः॥७॥

रोगार्तो मुच्यते रोगाद्बद्धो मुच्येत बन्धनात्।
भयान्मुच्येत भीतस्तु मुच्येतापन्न आपदः॥८॥


दुर्गाण्यतितरत्याशु पुरुषः पुरुषोत्तमम्।
स्तुवन्नामसहस्रेण नित्यं भक्तिसमन्वितः॥९॥

वासुदेवाश्रयो मर्त्यो वासुदेवपरायणः।
सर्वपापविशुद्धात्मा याति ब्रह्म सनातनम्॥१०॥


न वासुदेवभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित्।
जन्ममृत्युजराव्याधिभयं नैवोपजायते॥११॥

इमं स्तवमधीयानः श्रद्धाभक्तिसमन्वितः।
युज्येतात्मसुखक्षान्तिश्रीधृतिस्मृतिकीर्तिभिः॥१२॥


न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभा मतिः।
भवन्ति कृत पुण्यानां भक्तानां पुरुषोत्तमे॥१३॥

द्यौः सचन्द्रार्कनक्षत्रा खं दिशो भूर्महोदधिः।
वासुदेवस्य वीर्येण विधृतानि महात्मनः॥१४॥


ससुरासुरगन्धर्वं सयक्षोरगराक्षसम्।
जगद्वशे वर्ततेदं कृष्णस्य सचराचरम्॥१५॥

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिः सत्त्वं तेजो बलं धृतिः।
वासुदेवात्मकान्याहुः क्षेत्रं क्षेत्रज्ञ एव च॥१६॥


सर्वागमानामाचारः प्रथमं परिकल्पते।
आचारप्रभवो धर्मो धर्मस्य प्रभुरच्युतः॥१७॥

ऋषयः पितरो देवा महाभूतानि धातवः।
जङ्गमाजङ्गमं चेदं जगन्नारायणोद्भवम्॥१८॥


योगो ज्ञानं तथा सांख्यं विद्याः शिल्पादि कर्म च।
वेदाः शास्त्राणि विज्ञानमेतत्सर्वं जनार्दनात्॥१९॥


एको विष्णुर्महद्भूतं पृथग्भूतान्यनेकशः।
त्रींल्लोकान्व्याप्य भूतात्मा भुङ्क्ते विश्वभुगव्ययः॥२०॥


इमं स्तवं भगवतो विष्णोर्व्यासेन कीर्तितम्।
पठेद्य इच्छेत्पुरुषः श्रेयः प्राप्तुं सुखानि च॥२१॥

विश्वेश्वरमजं देवं जगतः प्रभुमव्ययम्।
भजन्ति ये पुष्कराक्षं न ते यान्ति पराभवम्॥२२॥

न ते यान्ति पराभवम ॐ नम इति।

अर्जुन उवाच —
पद्मपत्रविशालाक्ष पद्मनाभ सुरोत्तम।
भक्तानामनुरक्तानां त्राता भव जनार्दन॥२३॥

श्रीभगवानुवाच —
यो मां नामसहस्रेण स्तोतुमिच्छति पाण्डव।
सोहऽमेकेन श्लोकेन स्तुत एव न संशयः॥२४॥
स्तुत एव न संशय ॐ नम इति।


व्यास उवाच —
वासनाद्वासुदेवस्य वासितं भुवनत्रयम्।
सर्वभूतनिवासोऽसि वासुदेव नमोऽस्तु ते॥२५॥
श्री वासुदेव नमोऽस्तुत ॐ नम इति।

पार्वत्युवाच —
केनोपायेन लघुना विष्णोर्नामसहस्रकम।
पठ्यते पण्डितैर्नित्यं श्रोतुमिच्छाम्यहं प्रभो॥२६॥

ईश्वर उवाच —
श्रीराम राम रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्रनाम तत्तुल्यं राम नाम वरानने॥२७॥
श्रीरामनाम वरानन ॐ नम इति।

ब्रह्मोवाच —
नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रमूर्तये
                                  सहस्रपादाक्षिशिरोरुबाहवे।
सहस्रनाम्ने पुरुषाय शाश्वते
                        सहस्रकोटि युगधारिणे नमः॥२८॥
सहस्रकोटि युगधारिणे ॐ नम इति।

सञ्जय उवाच —
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥२९॥

श्रीभगवानुवाच —
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥३०॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥३१॥

आर्ताः विषण्णाः शिथिलाश्च भीताः
                                     घोरेषु च व्याधिषु वर्तमानाः।
संकीर्त्य नारायणशब्दमात्रं
                           विमुक्तदुःखाः सुखिनो भवन्तु॥३२॥

कायेन वाचा मनसेंद्रियैर्वा
                                बुद्ध्यात्मना वा प्रकृतिस्वभावात्।
करोमि यद्यत् सकलं परस्मै
                                      नारायणायेति समर्पयामि॥३३॥
              

                                      ॥इति श्रीविष्णोर्दिव्यसहस्रनामस्तोत्रं संपूर्णम्॥
                                                                ॥ॐ तत सत॥

|| श्री गायत्री शाप विमोचनम् ||

०१:- ॐ अस्य श्री गायत्री। ब्रह्मशाप विमोचन मन्त्रस्य। ब्रह्मा ऋषिः। गायत्री छन्दः। भुक्ति मुक्तिप्रदा ब्रह्मशाप विमोचनी गायत्री शक्तिः देवता। ब्रह्म शाप विमोचनार्थे जपे विनियोगः॥
ॐ गायत्री ब्रह्मेत्युपासीत यद्रूपं ब्रह्मविदो विदुः। तां पश्यन्ति धीराः सुमनसां वाचग्रतः।
ॐ वेदान्त नाथाय विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमही। तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात्।
ॐ गायत्री त्वं ब्रह्म शापत् विमुक्ता भव॥

०२:- ॐ अस्य श्री वसिष्ट शाप विमोचन मन्त्रस्य निग्रह अनुग्रह कर्ता वसिष्ट ऋषि। विश्वोद्भव गायत्री छन्दः। वसिष्ट अनुग्रहिता गायत्री शक्तिः देवता। वसिष्ट शाप विमोचनार्थे जपे विनियोगः॥
ॐ सोहं अर्कमयं ज्योतिरहं शिव आत्म ज्योतिरहं शुक्रः सर्व ज्योतिरसः अस्म्यहं। (इति युक्त्व
योनि मुद्रां प्रदर्श्य गायत्री त्रयं बारं )
ॐ देवी गायत्री त्वं वसिष्ट शापत् विमुक्तो भव॥

०३:- ॐ अस्य श्री विश्वामित्र शाप विमोचन मन्त्रस्य नूतन सृष्टि कर्ता विश्वामित्र ऋषि।
वाग्देहा गायत्री छन्दः। विश्वामित्र अनुग्रहिता गायत्री शक्तिः देवता। विश्वामित्र शाप विमोचनार्थे जपे
विनियोगः॥

ॐ गायत्री भजांयग्नि मुखीं विश्वगर्भां यदुद्भवाः देवाश्चक्रिरे विश्वसृष्टिं तां कल्याणीं
इष्टकरीं प्रपद्ये। यन्मुखान्निसृतो अखिलवेद गर्भः।


शाप युक्ता तु गायत्री सफला न कदाचन।
शापत् उत्तरीत सा तु मुक्ति भुक्ति फल प्रदा

॥प्रार्थना॥ :-
ब्रह्मरूपिणी गायत्री दिव्ये सन्ध्ये सरस्वती।
अजरे अमरे चैव ब्रह्मयोने नमोऽस्तुते।

ब्रह्म शापत् विमुक्ता भव।
वसिष्ट शापत् विमुक्ता भव।
विश्वामित्र शापत् विमुक्ता भव॥

सूर्याष्टकं स्तोत्रं :-

सांब उवाच :-
आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसीद ममभास्कर ।
दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमोऽस्तु ते ॥

सप्ताऽश्वरथमारूढं प्रचंडं कश्यपात्मजं ।
श्वेतपद्मधरं देवं तं सूर्यंम् प्रणमाम्यहम ॥

लोहितं रथमारूढं सर्वलोकपितामहं ।
महापापहरं देवं तं सूर्यम् प्रणमाम्यहम ॥

त्रैगुण्यं च महाशूरं ब्रह्मविष्णुमहेश्वरं ।
महापापहरं देवं तं सूर्यंम् प्रणमाम्यहम ॥

बृंहितम् तेज:पुंजं च वायुमाकाशमेव च ।
प्रभुं च सर्वलोकानाम् तं सूर्यंम् प्रणमाम्यहम ॥

बंधूकपुष्पसंकाशं हारकुण्डल भूषितं ।
एकचक्रधरं देवं तं सूर्यंम् प्रणमाम्यहम ॥

तं सूर्यम् जगत्कर्तारं महातेजप्रदीपनं ।
महापापहरं देवं तं सूर्यंम् प्रणमाम्यहम ॥

तं सूर्यम् जगतां नाथं ज्ञानविज्ञानमोक्षदं ।
महापापहरं देवं तं सूर्यंम् प्रणमाम्यहम ॥

सुर्याष्टकं पठेन्नित्यं गृहपीडा प्रणाशनम् ।
अपुत्रो लभते पुत्रं दरिद्रो धनवन भवेत ॥
आमिषं मधुपानं य: करोति रवेर्दिने ।
सप्तजन्म भवेद्रोगी प्रतिजन्म दरिद्रता ॥

स्त्रीतैलमधुमांसानि यस्त्यजेत्तु रवेर्दिने ।
न व्याधी: शोकदारिद्र्यं सूर्यलोकं स गच्छति ॥

।इति सुर्याष्टकं स्तोत्रं संपूर्णं ।

इसं सूर्याष्टकं का जो भी श्रद्धा पूर्वक पाठ करता है उसकी सभी ग्रहों से सम्बंधित पीड़ा समाप्त हो जाती है इससे पुत्र हीन को पुत्र प्राप्त होता है दरिद्री को धन प्राप्त होता  है

|| श्री दुर्गा आपदुद्धाराष्टकम् ||


नमस्ते शरण्ये शिवे सानुकम्पे नमस्ते जगद्व्यापिके विश्वरूपे |
नमस्ते जगद्वन्द्यपादारविन्दे नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||१||

नमस्ते जगच्चिन्त्यमानस्वरूपे नमस्ते महायोगिविज्ञानरूपे |
नमस्ते नमस्ते सदानन्द रूपे नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||२||

अनाथस्य दीनस्य तृष्णातुरस्य भयार्तस्य भीतस्य बद्धस्य जन्तोः |
त्वमेका गतिर्देवि निस्तारकर्त्री नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||३||

अरण्ये रणे दारुणे शुत्रुमध्ये जले सङ्कटे राजग्रेहे प्रवाते |
त्वमेका गतिर्देवि निस्तार हेतुर्नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||४||

अपारे महदुस्तरेऽत्यन्तघोरे विपत् सागरे मज्जतां देहभाजाम् |
त्वमेका गतिर्देवि निस्तारनौका नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||५||

नमश्चण्डिके चण्डोर्दण्डलीलासमुत्खण्डिता खण्डलाशेषशत्रोः |
त्वमेका गतिर्विघ्नसन्दोहहर्त्री नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||६||

त्वमेका सदाराधिता सत्यवादिन्यनेकाखिला क्रोधना क्रोधनिष्ठा |
इडा पिङ्गला त्वं सुषुम्ना च नाडी नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||७||

नमो देवि दुर्गे शिवे भीमनादे सदासर्वसिद्धिप्रदातृस्वरूपे |
विभूतिः सतां कालरात्रिस्वरूपे नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||८||

शरणमसि सुराणां सिद्धविद्याधराणां मुनिदनुजवराणां व्याधिभिः पीडितानाम् |
नृपतिगृहगतानां दस्युभिस्त्रासितानां त्वमसि शरणमेका देवि दुर्गे प्रसीद ||९||

|| इति सिद्धेश्वरतन्त्रे हरगौरीसंवादे आपदुद्धाराष्टकस्तोत्रं सम्पूर्णम् ||

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

शकुन शास्त्र के वचन :-

आने वाले अगले ही पल में क्या होने वाला है, यह बता पाना लगभग असंभव सा ही है। केवल ज्योतिष शास्त्र की मदद से  संभावित भविष्य मालुम किया जा सकता है। किसी भी खास काम के लिए जाते समय ध्यान दिया जाए तो कई छोटी-छोटी घटनाएं होती हैं। इन्हीं घटनाओं के आधार आने वाले समय में होने वाली घटनाओं की जानकारी प्राप्त हो सकती है।
शास्त्रों के अनुसार कई प्रकार के शकुन और अपशकुन की मान्यताएं बताई गई हैं। इनका गहराई से अध्ययन करने पर आप कार्य में प्राप्त होने वाली सफलता या असफलता मालुम कर सकते हैं। बहुत से शकुन-अपशकुन पशु-पक्षियों से ही संबंधित है।
कहीं जाते समय अक्सर कई पशु-पक्षी हमें दिखाई देते हैं जैसे गाय, कुत्ता, चिडिय़ा, कौआं, कबूतर आदि।
 

इन पशु-पक्षियों की स्थिति पर ध्यान दिया जाए तो आसानी से समझा जा सकता है कार्यों में सफलता मिलेगी या असफलता। रोड पर सामान्यत: गाय अवश्य ही दिखाई देती है। यात्रा पर या किसी खास कार्य के लिए जाते समय यदि आपको गाय अपने दाहिने हाथ की तरफ दिख जाए तो समझ लेना चाहिए कि आपको कार्य में सफलता प्राप्त होती है। यदि गाय बाएं हाथ की तरफ दिखती है तो सफलता के लिए कड़ी मेहनत करना पड़ता है। यदि आपको गाय सामने से आती दिखाई दे तो समझ लें कि आपको सफलता आसानी से प्राप्त हो जाएगी। गाय को स्पर्श करके जाने से बिना प्रयास ही सफलता प्राप्त हो जाती है।

वसंत पंचमी ०८ फरवरी, २०११ के लिए विशेष :-

बसन्त पंचमी का पर्व माघ मास में शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन मनाया जाता है. इस वर्ष यह पर्व ०८ फरवरी, २०११ में मनाया जायेगा. बसन्त पंचमी के दिन भगवान श्रीविष्णु, श्री कृ्ष्ण-राधा व शिक्षा की देवी माता सरस्वती की पूजा पीले फूल, गुलाल, अर्ध्य, धूप, दीप, आदि द्वारा की जा जाती है. पूजा में पीले व मीठे चावल व पीले हलुवे का श्रद्धा से भोग लगाकर, स्वयं इनका सेवन करने की परम्परा है.

*बसन्त पंचमी पर्व का सरस्वती माता से संबन्ध :-
माता सरस्वती बुद्धि व संगीत की देवी है. पंचमी के दिन को माता सरस्वती के जन्मोत्सव के रुप में भी मनाया जाता है. यह पर्व ऋतुओं के राजा का पर्व है. इन दिन से बसंत ऋतु से शुरु होकर, फाल्गुन माह की कृ्ष्ण पक्ष की पंचमी तक रहता है. यह पर्व कला व शिक्षा प्रेमियों के लिये विशेष महत्व रखता है.
एक किंवदन्ती के अनुसार इस दिन ब्रह्मा जी ने सृ्ष्टि की रचना की थी. यह त्यौहार उतर भारत में पूर्ण हर्ष- उल्लास से मनाया जाता है. एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार इस दिन भगवान श्री राम ने माता शबरी के झूठे बैर खाये थे. इस उपलक्ष में बसन्त पंचमी का त्यौहार मनाया जाता है.

*बसन्त पंचमी की विशेषता :-
बसन्त पंचमी को जीवन की शुरुआत का दिन माना जाता है. यह दिन खुशियों के आगमन का दिन है. बसंत का मौसम बहार का मौसम होता है, इस माह में खेतों में चारों ओर पीली सरसों सबका मन मोह लेती है. गेंहू की बालियां सोने का रुप ले लह-लहाने लगती है. रंग- बिरंगी फूल खिलने लगते है. बसन्त पंचमी के दिन को रंगों, खुशियों के स्वागत के रुप में भी मनाया जाता है.
माघ माह की पांचवी तिथि को बसन्त पंचमी मनाई जाती है. इस दिन सरस्वती मां के अलावा भगवान विष्णु व कामदेव की भी पूजा- उपासना की जाती है. सभी छ: ऋतुओं में से बसन्त ऋतु सबसे अधिक मनमोहक होती है.

*बसन्त पंचमी के दिन माता शारदा का पूजन :-
माता शारदा के पूजन के लिये भी बसंत पंचमी का दिन विशेष शुभ रहता है. इस दिन 2 से 10 वर्ष की कन्याओं को पीले-मीठे चावलों का भोजन कराया जाता है. तथा उनकी पूजा की जाती है. मां शारदा और कन्याओं का पूजन करने के बाद पीले रंग के वस्त्र और आभूषण कुमारी कन्याओ, निर्धनों व विप्रों को दिने से परिवार में ज्ञान, कला व सुख -शान्ति की वृ्द्धि होती है. इसके अतिरिक्त इस दिन पीले फूलों से शिवलिंग की पूजा करना भी विशेष शुभ माना जाता है.

*बसंत पंचमी का मुहूर्त समय में उपयोग
बसंत पंचमी को अबूझ मुहूर्तों में शामिल किया जाता है. बसंत पंचमी के दिन शुभ कार्य जिसमें विवाह, भवन निर्माण, कूप निर्माण, फैक्ट्री आदि का शुभारम्भ, शिक्षा संस्थाओं का उद्धघाटन करने के लिये शुभ मुहूर्त के रुप में प्रयोग किया जाता है.

*इसके अतरिक्त इसे भी देखे :-
या कुन्देन्दु तुषारहार धवला, या शुभ्र वस्त्रावृता !
या वीणावरदंडमंडितकरा, या श्वेत पद्मासना !!
या ब्रह्मास्च्युत शंकर प्रभृतिर्भिरदेवाः सदाबंदिताः
सा मां पातु सरस्वती देवी, या निशेष जाड़यापहा !!
सरस्वती वाणी एवं ज्ञान की देवी है. ज्ञान को संसार में सभी चीजों से श्रेष्ठ कहा गया है. इस आधार पर देवी सरस्वती सभी से श्रेष्ठ हैं. कहा जाता है कि जहां सरस्वती का वास होता है वहां लक्ष्मी एवं काली माता भी विराजमान रहती हैं. इसका प्रमाण है माता वैष्णो का दरबार जहॉ सरस्वती, लक्ष्मी, काली ये तीनों महाशक्तियां साथ में निवास करती हैं. जिस प्रकार माता दुर्गा की पूजा का नवरात्रे में महत्व है उसी प्रकार बसंत पंचमी के दिन सरस्वती पूजन का महत्व है.
सरस्वती पूजा के दिन यानी माघ शुक्ल पंचमी के दिन सभी शिक्षण संस्थानों में शिक्षक एवं छात्रगण सरस्वती माता की पूजा एवं अर्चना करते हैं. सरस्वती माता कला की भी देवी मानी जाती हैं अत: कला क्षेत्र से जुड़े लोग भी माता सरस्वती की विधिवत पूजा करते हैं. छात्रगण सरस्वती माता के साथ-साथ पुस्तक, कापी एवं कलम की पूजा करते हैं. संगीतकार वाद्ययंत्रों की, चित्रकार अपनी तूलिका की पूजा करते हैं.

*सरस्वती उत्पत्ति कथा :-
सृष्टि के निर्माण के समय सबसे पहले महालक्ष्मी देवी प्रकट हुईं. इन्होंने भगवान शिव, विष्णु एवं ब्रह्मा जी का आह्वान किया. जब ये तीनों देव उपस्थित हुए. देवी महालक्ष्मी ने तब तीनों देवों से अपने-अपने गुण के अनुसार देवियों को प्रकट करने का अनुरोध किया. भगवान शिव ने तमोगुण से महाकली को प्रकट किया, भगवान विष्णु ने रजोगुण से देवी लक्ष्मी को तथा ब्रह्मा जी ने सत्वगुण से देवी सरस्वती का आह्वान किया. जब ये तीनो देवी प्रकट हुईं तब जिन देवों ने जिन देवियों का आह्वान किया था उन्हें वह देवी सृष्टि संचालन हेतु महालक्ष्मी ने भेंट किया. इसके पश्चात स्वयं महालक्ष्मी माता लक्ष्मी के स्वरूप में समा गईं.

*सरस्वती वाणी की देवी :-
सृष्टि का निर्माण कार्य पूरा करने के बाद ब्रह्मा जी ने जब अपनी बनायी सृष्टि मृत शरीर की भांति शांत है. इसमें न तो कोई स्वर है और न वाणी. अपनी उदासीन सृष्टि को देखकर ब्रह्मा जी को अच्छा नहीं लगा. ब्रह्मा जी भगवान विष्णु के पास गये और अपनी उदासीन सृष्टि के विषय में बताया. ब्रह्मा जी से तब भगवान विष्णु ने कहा कि देवी सरस्वती आपकी इस समस्या का समाधान कर सकती हैं. आप उनका आह्वान किया कीजिए उनकी वीणा के स्वर से आपकी सृष्टि में ध्वनि प्रवाहित होने लगेगी.
भगवान विष्णु के कथनानुसार ब्रह्मा जी ने सरस्वती देवी का आह्वान किया. सरस्वती माता के प्रकट होने पर ब्रह्मा जी ने उन्हें अपनी वीणा से सृष्टि में स्वर भरने का अनुरोध किया. माता सरस्वती ने जैसे ही वीणा के तारों को छुआ उससे 'सा' शब्द फूट पड़ा. यह शब्द संगीत के सप्तसुरों में प्रथम सुर है.
इस ध्वनि से ब्रह्मा जी की मूक सृष्टि में ध्वनि का संचार होने लगा. हवाओं को, सागर को, पशु-पक्षियों एवं अन्य जीवों को वाणी मिल गयी. नदियों से कलकल की ध्वनि फूटने लगी. इससे ब्रह्मा जी अति प्रसन्न हुए उन्होंने सरस्वती को वाणी की देवी के नाम से सम्बोधित करते हुए वागेश्वरी नाम दिया. माता सरस्वती का एक नाम यह भी है. सरस्वती माता के हाथों में वीणा होने के कारण इन्हें वीणापाणि भी कहा जाता है.

*वसन्त पंचमी सरस्वती का जन्मोत्सव :-
वसन्त पंचमी के दिन सरस्वती माता की पूजा की प्रथा सदियों से चली आ रही है. मान्यता है सृष्टि के निर्माण के समय देवी सरस्वती बसंत पंचमी के दिन प्रकट हुई थीं अत: बसंत पंचमी को सरस्वती माता का जन्मदिन माना जाता है. सरस्वती माता का जन्मदिन मनाने के लिए ही माता के भक्त उनकी पूजा करते हैं.

*सरस्वती पूजनोत्सव :-
ज्ञान एवं वाणी के बिना संसार की कल्पना करना भी असंभव है. माता सरस्वती इनकी देवी हैं अत: मनुष्य ही नहीं, देवता एवं असुर भी माता की भक्ति भाव से पूजा करते हैं. सरस्वती पूजा के दिन लोग अपने-अपने घरों में माता की प्रतिमा अथवा तस्वीर की पूजा करते हैं. विभिन्न पूजा समितियों द्वारा भी सरस्वती पूजा के अवसर पर पूजा का भव्य आयोजन किया जाता है.

*सरस्वती पूजा की विधि :-
सरस्वती पूजा करते समय सबसे पहले सरस्वती माता की प्रतिमा अथवा तस्वीर को सामने रखना चाहिए. इसके बाद कलश स्थापित करके गणेश जी तथा नवग्रह की विधिवत पूजा करनी चाहिए. इसके बाद माता सरस्वती की पूजा करें. सरस्वती माता की पूजा करते समय उन्हें सबसे पहले आचमन एवं स्नान कराएं. इसके बाद माता को फूल एवं माला चढ़ाएं. सरस्वती माता को सिन्दुर एवं अन्य श्रृंगार की वस्तुएं भी अर्पित करनी चाहिए. बसंत पंचमी के दिन सरस्वती माता के चरणों पर गुलाल भी अर्पित किया जाता है.
देवी सरस्वती स्वेत वस्त्र धारण करती हैं अत: उन्हें स्वेत वस्त्र पहनाएं. सरस्वती पूजन के अवसर पर माता सरस्वती को पीले रंग का फल चढ़ाएं. प्रसाद के रूप में मौसमी फलों के अलावा बूंदिया अर्पित करना चाहिए. इस दिन सरस्वती माता को मालपुए एवं खीर का भी भोग लगाया जाता है. इसके अलावा आप "ॐ ऐं वाग्देव्ये नमः" मन्त्र का जप भी कर सकते है.

*सरस्वती माता का हवन :-
सरस्वती पूजा करने बाद सरस्वती माता के नाम से हवन करना चाहिए. हवन के लिए हवन कुण्ड अथवा भूमि पर सवा हाथ चारों तरफ नापकर एक निशान बना लेना चाहिए. इसे कुशा से साफ करके गंगा जल छिड़क कर पवित्र करने के बाद. आम की छोटी-छोटी लकडि़यों को अच्छी तरह बिछा लें और इस पर अग्नि प्रजज्वलित करें. हवन करते समय गणेश जी, नवग्र के नाम से हवन करें. इसके बाद सरस्वती माता के नाम से "ओम श्री सरस्वतयै नम: स्वाहा" या उपरोक्त जिस मन्त्र का जप किया उस मंत्र से 108 बार हवन करना चाहिए. हवन के बाद सरस्वती माता की आरती करें और हवन का भभूत लगाएं.

*सरस्वती विसर्जन :-
माघ शुक्ल पंचमी के दिन सरस्वती की पूजा के बाद षष्टी तिथि को सुबह माता सरस्वती की पूजा करने के बाद उनका विसर्जन कर देना चाहिए. संध्या काल में मूर्ति को प्रणाम करके जल में प्रवाहित कर देना चाहिए.

मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

ज्योतिष से सम्बंधित प्रश्नावली- ( भाग- ०२)

प्र०.१- संस्कार कितने होते हैं ?
उत्तर- संस्कार १६ (सोलह) होते हैं |
प्र०.२- प्रथम संस्कार कौन सा है ?
उत्तर- प्रथम संस्कार गर्भाधान संस्कार है |
प्र०.३- बच्चा माँ के गर्भ में कितने मास तक रहता है ?
उत्तर- दस (१०) मास तक |
प्र०.४- क्रमशः दस मास के स्वामी कौन-कौन से ग्रह हैं ?
उत्तर- शुक्र, मंगल, गुरु, रवि, चंद्रमा, शनि, बुद्ध, लग्नेश, चंद्रमा, सूर्य |
प्र०.५- ग्रहों में कौन-कौन से ग्रह ब्राह्मणादि वर्णों के स्वामी हैं ?
उत्तर- गुरु-शुक्र ब्राह्मणों के, मंगल-सूर्य क्षत्रियों के, चंद्रमा वैश्यों के, बुध शूद्रों के, शनि अन्त्यजों  
           (चांडालों) के स्वामी हैं |
प्र०.६- गुरु शुद्धि हेतु गुरु किन-किन स्थानों में शुभ होता है ?
उत्तर- गुरु जन्म राशि से ९, ५, ११, २, ७ स्थानों में सुभ होता है |
प्र०.७- गुरु शुद्धि हेतु गुरु किन-किन स्थानों में अशुभ होता है ?
उत्तर- गुरु जन्म राशि से ४, ८, १२, स्थानों में अशुभ होता है |
प्र०.८- ४, ८, १२ स्थानों में रहते हुए भी किन कारणों से सुभ  हो जाता है ?
उत्तर- जब वह गुरु उच्च, त्रिकोण, मित्र क्षेत्री, वर्गोत्तम नवमांश, स्व नवमांश में हो तो शुभ होता है |
 प्र०.९-  सूर्य शुद्धि हेतु सूर्य किन-किन स्थानों में शुभ होता है ?
उत्तर-  सूर्य जन्म राशि से ३, ६, १०, ११ स्थानों में सुभ होता है |
प्र०.१०- सूर्य शुद्धि हेतु सूर्य किन-किन स्थानों में अशुभ होता है ?
उत्तर- सूर्य जन्म राशि से ४, ८, १२, स्थानों में अशुभ होता है |प्र०.११- चन्द्र शुद्धि हेतु चन्द्र किन-किन   
           स्थानों में शुभ होता है ?
उत्तर- चन्द्र जन्म राशि से १, २, ३, ६, ७, ९, १०,११ स्थानों में सुभ होता है |
प्र०.१२- चन्द्र शुद्धि हेतु चन्द्र किन-किन स्थानों में अशुभ होता है ?
उत्तर-  चन्द्र जन्म राशि से ४, ८, १०  स्थानों में अशुभ होता है |
प्र०.१३- ब्राह्मणों का यग्योंपवीत किस वर्ष में किया जाता है ?
उत्तर- ५ वें या ८ वें  वर्ष में |
प्र०.१४- क्षत्रियों का यग्योंपवीत किस वर्ष में किया जाता है ?
उत्तर- ६ वें या ११ वें वर्ष में |
प्र०.१५- वैश्यों का यग्योंपवीत किस वर्ष में किया जाता है ?
उत्तर- ८ वें या १२ वें वर्ष में |
प्र०.१६- गुरु शुक्र के अस्त होने पर क्या नहीं करना चाहिए ?
उत्तर- समस्त सुभ कार्य जैसे विवाह, मुंडन, वर्तबंध, आदि नहीं करना चाहिए |
प्र०.१७- विवाह हेतु कुंडली मिलान में कितने गुण माने गए है ?
उत्तर- ३६ गुण माने गए है |
प्र०.१८- मिलान हेतु कितने कूट है ?
उत्तर- मिलान हेतु ०८ (अष्ट) कूट माने गए है |
प्र०.१९- अष्ट कूटों के नाम क्या-क्या है ?
उत्तर- अष्ट कूटों के नाम- वर्ण, वश्य, तारा, योनी, ग्रहमैत्री, गण मैत्री, भकूट, नाडी है |
प्र०.२०- सूर्य के मित्र कौन-कौन से है ?
उत्तर- सूर्य के मित्र ग्रह- मंगल, गुरु, चन्द्र है |
प्र०.२१- भकूट क्या होता है व कितने प्रकार का होता है ?
उत्तर- कन्या और वर की राशियाँ परस्पर ०६-०८ वीं, ०९-०५ वीं या ०२-१२ पड़े तो भकूट होता है व
           ये दो प्रकार का होता है |
प्र०.२२- दो प्रकार के भकूट कौन-कौन से होते है ?
उत्तर- प्रथम मित्र भकूट, दूसरा शत्रु भकूट |
प्र०.२३- विवाह के लिए कौन सा भकूट सुभ होता है ?
उत्तर- विवाह के लिए मित्र भकूट सुभ होता है |
प्र०.२४- होरा क्या होती है ?
उत्तर- होरा का अर्थ है घंटा यानि ०२ घटी ३० पल= ०१ घंटा = ०१ होरा |
प्र०.२५- ०१ दिन-रात में कितनी होरायें होती है ?
उत्तर- ०१ दिन-रात में २४ होराएँ होती है |
प्र०.२६- होरा चक्र में किन-किन ग्रहों की होराएँ होती है ?
उत्तर- होराचक्र में केवल सूर्य और चन्द्र की होराएँ होती है |
प्र०.२७- गंडांत कितने प्रकार के होते है, और कौन-कौन से होते है ?
उत्तर- गंडांत तीन प्रकार के होते है- ०१ तिथि गंडांत, ०२- नक्षत्र गंडांत, ०३- लग्न गंडांत |
प्र०.२८- तिथि गंडांत किसको कहा जाता है ?
उत्तर- नंदा (०१-०६-११) व भद्रा (०५-०९-१५) तिथियों की प्रारम्भ की ०१ घटी (२४ मिनट) को तिथि गंडांत  
           कहा जाता है |
प्र०.२९- नक्षत्र गंडांत किसको कहा जाता है ?
उत्तर- जेष्ठा, रेवती, आश्लेषा की अंत की दो-दो घटी (४८ मिनट) व मूल, अश्वनी, मघा की शुरू की
           दो-दो घटी (४८ मिनट) को नक्षत्र गंडांत कहा जाता है |
प्र०.३०- लग्न गंडांत किसे कहते है ?
उत्तर- कर्क, वृश्चिक, मीन की अंत की आधी घटी (१२ मिनट ) व सिंह, धनु, मेष की शुरू की आधी
           घटी (१२ मिनट ) को लग्न गंडांत कहा जाता है |

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

ज्योतिष से सम्बंधित प्रश्नावली( भाग- ०१)-

प्र०.१-  मुहूर्तचिन्तामणि ग्रन्थ के रचियता कौन हैं ?
उत्तर- श्री अनंत दैवज्ञं के पुत्र श्री रामचार्य हैं |
प्र०.२- लीलावती के मुख्य विषय कौन-कौन से हैं ?
उत्तर-  जातकर्म, नामाक्रम, समस्त सोलह संस्कार |
प्र०.3- अग्नि व ब्रह्मा कौन सी तिथियों के स्वामी हैं ?
उत्तर- प्रतिपदा व द्वितीया |
प्र०.४- नंदा कौन सी तिथि की संज्ञा है ?
उत्तर- १-६-११ |
प्र०.५- शुक्ल पक्ष की कौन-कौन सी तिथियाँ शुभ मानी जाती हैं ?
उत्तर- १-२-३-४-५ |
प्र०.६- भद्रा तिथियाँ कौन सी हैं ?
उत्तर- २-७-१२ |
प्र०.७- जया तिथियाँ कौन सी हैं ?
उत्तर- ३-८-१३ |
प्र०.८- रिक्ता तिथियाँ कौन सी हैं ?
उत्तर- ४-९-१४ |
प्र०.९- पूर्णा तिथियाँ कौन सी हैं ?
उत्तर- ५-१०-१५ |
प्र०.१०- आनंदादी योग कितने हैं ?
उत्तर- २८ (अठाईश) |
प्र०.११- कुलिकादी योग कितने हैं, और कौन-कौन से हैं ?
उत्तर- ४ हैं, कुलिक, कालवेला, यमघंट और कंटक |
प्र०.१२- होलाष्टक कब होते हैं ?
उत्तर- होली से आठ दिन पूर्व |
प्र०.१३- भद्रा कब होती है ?
उत्तर- जब भी विष्टि करण  होता है |
प्र०.१४- मनुष्य लोक में भद्रा कब रहती है ?
उत्तर- जब कुम्भ, मीन, कर्क और सिंह राशि पर चंद्रमा रहता है |
प्र०.१५- नक्षत्र कितने होते हैं ?
उत्तर- २७ (सत्ताइश) |
प्र०.१६- एक नक्षत्र के कितने चरण होते हैं ?
उत्तर- ०४ (चार) चरण |
प्र०.१७- एक नक्षत्र का मान कितना होता है ?
उत्तर- १३ अंश २० कला या एक राशि |
प्र०.१८- चर या चल संज्ञक नक्षत्र कौन से हैं ?
 उत्तर- स्वाती, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा और सोमवार  |
प्र०.१९- चर संज्ञक नक्षत्रों में कौन से कार्य करने चाहिए ?
उत्तर- जो कार्य गति प्रधान हों जैसे गाडी चलाना आदि |
प्र०.२०- उग्र संज्ञक नक्षत्र कौन से हैं ?
उत्तर- पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाषाढ, पूर्वाभाद्रपदा, भरणी, मघा, और मंगलवार |
  

शनिवार, 12 नवंबर 2011

अनिष्ट ग्रहों के निवारण हेतु कुछ उपाय-

सूर्य
सूर्य के लिए-
०१. ग्यारह या इक्कीस रविवार तक गणेश जी पर लाल फूलों चढ़ाएं |
०२. चांदी के बर्तन में जल पीयें, और चांदी के वर्क का सेवन करें |
०३. रविवार को नमक का सेवन करें |
०४. सूर्य की होरा{समय} में निर्जल {बिना पानी पीये} रहें |
०५. विष्णु भगवान का पूजन करें |
०६. "ॐ घ्रिणी सूर्याय नमः" इस मन्त्र का १०८ या ५१ या फिर २१ बार
       सुबह शाम जाप करें |
०७. सूर्य को ताम्बे के लोटे से "जल, चावल, लाल फूल, लाल सिंदूर" मिला
       कर अर्घ्य दें |

चन्द्र
 चन्द्र के लिए-
०१. दक्षिणावर्ती शंख का नित्य पूजन करें |
०२. ग्यारह सोमवार को दोपहर में केवल दही-भात ही खाएं |
०३. सूर्यास्त के बाद दूध न पियें | न ही पिलायें |
०४. तीन सफ़ेद फूल हर सोमवार और पूर्णिमा को नदी या बहती
       दरिया में विसर्जित करें |
०५. मोतियों की माला या चन्द्रकान्तमणि गले में धारण करें |
०६. पूर्णिमा की रात को चन्द्र दर्शन करें व चन्द्रमा को चावल एवं 
       दूध मिलाकर चांदी के बर्तन से अर्घ्य दें |
०७. सोमवती अमावस्या को ५ सुहागन स्त्रियों को खीर का भोजन कराएँ व दक्षिणा दें |

मंगल
 मंगल के लिए-
०१. मंगलवार को रेवड़ियाँ पानी में प्रवाहित करें | 
०२. आटे के पेड़े में गुड व चीनी मिलाकर गाय को खिलाएं |
०३. ताम्बे के बर्तन से जल पियें |
०४. लाल पुष्पों को जल में प्रवाहित करें, मंगलवार को हनुमान जी के 
       मंदिर जा के हनुमान जी के चरणों से सिंदूर अपने मस्तक से
       लगायें |
०५. नित्य सुबह शाम हनुमान चालीसा व बजरंग बाण का पाठ करें |
०६. दूध का उबाल चूल्हे पर न गिरने दें |

बुध के लिए-

बुध
 ०१. एक हरी इलाईची प्रतेक बुधवार को जल में प्रवाहित करें |
०२. बुधवार को इलाईची व तुलसी के पत्ते सेवन करें |
०३. हरे सीता फल के अन्दर ताम्बे के पैसे डालकर नदी में प्रवाहित
      करें |
०५. संकटनाशन गणपति स्तोत्र का पाठ नित्य करें |
०६. बुधवार के दिन ५ बालक व बालिकाओं को भोजन कराएँ |
०७. बुधवार को गाय को हरी घास खिलाएं |
०८. दुर्गासप्तशती का पाठ करवाएं | यदि संभव हो तो स्वयं करें |

गुरु के लिए-

गुरु
 ०१. नौ या बारह चमेली के फूल नदी में गुरुवार को प्रवाहित करें |
०२. पीले कनेर के फूल विष्णु भगवान को पर्तेक गुरुवार को अर्पण
      करें |
०३. दत्तात्रेय वज्र कवच का पाठ प्रतिदिन करें व भगवान विष्णु का
      पूजन करें |
०५. गुरुवार को नमक का सेवन न करें, चने से बनी हुई वस्तुओं का
      सेवन करें |
०६. केला कभी न खाएं एवं गुरुवार को पीपल के पेड़ व केले के पेड़
      को हल्दी मिलाकर जल चढ़ाएं |
०७. विष्णुसहस्रनाम के १०८ पाठ करें या किसी योग्य ब्राह्मण से
       करवाएं |

शुक्र के लिए-  
०१. सफ़ेद गुलाब के फूल शुक्रवार को नदी या कुएं में डालें |
०२. प्रतेक शुक्रवार को तिल जौ व देशी घी मिलाकर हवं करें |
०३. चांदी के गहने पहनें व गले में हाथी का दांत पहने |
०४. लक्ष्मी या दुर्गा का पूजन करें |
०५. सफ़ेद गाय को शुक्र वार को रोटी खिलाएं |
०६. शुक्र वार को लाल ज्वार व दही किसी धार्मिक स्थान पर दान करें |
०७. सफ़ेद कांच के बर्तन में चांदी डालकर धूप में रखें व बाद में उसे पी लें |
०८.सफ़ेद रेशमी वस्त्र दान करें |
०९. चांदी घोड़े का रोज पूजन करें |

शनि के लिए-
 ०१.शनिवार को सफेदे का पत्ता अपनी जेब में रखें |                                          
 ०२. नारियल के तेल में कपूर मिला के सिर पे लगायें |
 ०३. काले उड़द जल में प्रवाहित करें |
 ०४. ताम्बे या लोहे के पात्र से ही जल पियें |
 ०५. शनिवार को तेल से चुपड़ी रोटी काले कुत्ते को खिलाएं |
 ०६. काले घोड़े की नाल या नाव की कील की अंगूठी बनवाकर मध्यमा ऊँगली
       में शनिवार को पहनें |
 ०७. शनिवार को लोहे के बर्तन में सरसों का तेल व ताम्बे का सिक्का डालकर अपना चेहरा देख कर             
        शनि मंदिर में चढ़ें या मांगने वाले को दें |
 ०८. शनिवार को सरसों का तेल, मांस, अंडा, शराब का शेवन न करें |
 ०९. शनिवार को तेल या शराब बहते पानी में प्रवाहित करें |
 १०. चिड़ियों को बाजरा डालें व पीपल पर जल चढ़ाएं |

राहू के लिए-
०१. शिव जी को बेलपत्र चढ़ाएं व प्रतिदिन शिव मंदिर जाएं |
०२. लोहे के पात्र में रखा जल ही पिएँ  |
०३. नारियल में छेद करके उसके अन्दर ताम्बे का पैसा नदी में बहा दें |
०४. चांदी की अंगूठी बीच वाली ऊँगली में पहनें |
०५. सोमवार को मूली दान करें |
  ०६. ४१ दिन तक १ रूपया प्रतिदिन भंगी को दें |

केतु के लिए-
०१. किसी ज्योतिर्लिंग पे नाग चढ़ाएं |

०२. लोहे के पात्र में रखा जल ही पिएँ |

०३. गुरु पूर्णिमा, गुरु द्वादशी, गुरु पंचमी, गुरु प्रतिपदा, नाग पंचमी, को 
      रुद्राभिषेक करवाएं |

०४. कुतों को रोटी खिलाएं व गरीब और अपाहिज को भोजन करवाएं |

०५. गुड के साथ चांवल बनाकर कोढियों को खिलाएं |

०६. कीड़ों के बिल में तिल डालें |

०७. बेल के अन्दर ताम्बे का पैसा डालकर नदी में बहाएँ  |

 ०८.चांदी की अंगूठी बीच वाली ऊँगली में पहनें |
                                                                                                          "सधन्यवाद"
                                                                                                   आचार्य कमल डिमरी 
                                                                                                  फलित ज्योतिषाचार्य  
                                                                        श्री दर्शन महाविद्यालय / गायत्री ज्योतिष केंद्र १४ बीघा
                                                                                            मुनि की रेती ऋषिकेश {टि. ग.}

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

|| मंगली दोष का विचार ||

मंगली दोष का नाम सुनते ही वर और कन्या के अभिभावक सतर्क हो जाते है,विवाह सम्बन्धो के लिये मंगलिक शब्द एक प्रकार से भय अथा अमंगल का सूचक बन गया है,परन्तु प्रत्येक मंगली जातक विवाह के अयोग्य नही होता है,सामान्यत: मंगलीक दिखाई पडने वाली जन्म पत्रियां भी ग्रहों की स्थिति तथा द्रिष्टि के कारण दोष रहित हो जाती है,यहां मंगली दोष विचार तथा मंगली दोष परिहार विषयक आवश्यक वैदिक जानकारियां प्रस्तुत की जा रही है.

                                                         मंगली दोष का विचार
यदि जातक की जन्म कुण्डली में लग्न यानी प्रथम भाव बारहवें भाव,पाताल चतुर्थ भाव,जामित्र यानी सप्तम भाव, तथा अष्टम में मंगल बैठा हो,तो कन्या अपने पति के लिये तथा पति कन्या के लिये घातक होता है,इसे मंगली दोष कहते है,यदि वर की कुन्डली में धन यानी दूसरे सुत यानी पंचम, सप्तम यानी पत्नी भाव,अष्टम यानी मृत्यु भाव और व्यय यानी बारहवें भाव में मंगल विराजमान हो तो वह उसकी स्त्री का विनाश करता है,और यदि स्त्री की कुन्डली में इन्ही स्थानों में मंगल विराजमान हो तो वह विधवा योग का कारक होता है,मंगल की इस प्रकार की स्थिति के कारण वर और कन्या का विवाह वर्जित है,आचार्यों ने एकादस भाव स्थित मंगल को भी मंगली की उपाधि दी है.

                                                         मंगली दोष परिहार
  • जन्म कुन्डली के प्रथम द्वितीय चतुर्थ सप्तम अष्टम एकादस और द्वादस भावों में किसी में भी मंगल विराजमान हो तो वह विवाह को विघटन में बदल देता है,यदि इन भावों में विराजमान मंगल यदि स्वक्षेत्री हो,उच्च राशि में स्थिति हो,अथवा मित्र क्षेत्री हो,तो दोषकारक नही होता है.
  • यदि जन्म कुन्डली के प्रथम भाव में मंगल मेष राशि का हो,द्वादस भाव में धनु राशि का हो,चौथे भाव में वृश्चिक का हो,सप्तम भाव में मीन राशि का हो,और आठवें भाव में कुम्भ राशि का हो,तो मंगली दोष नही होता है.
  • यदि जन्म कुन्डली के सप्तम,लगन,चौथे,नौवें,और बारहवें भाव में शनि विराजमान हो तो मंगली दोष नही होता है.
  • यदि जन्म कुन्डली में मंगल गुरु अथवा चन्द्रमा के साथ हो,अथवा चन्द्रमा केन्द्र में विराजमान हो,तो मंगली दोष नही होता है.
  • यदि मंगल चौथे,सातवें भाव में मेष,कर्क,वृश्चिक,अथवा मकर राशि का हो,तो स्वराशि एवं उच्च राशि के योग से वह दोष रहित हो जाता है,अर्थात मंगल अगर इन राशियों में हो तो मंगली दोष का प्रभाव नही होता है,कर्क का मंगल नीच का माना जाता है,लेकिन अपनी राशि का होने के कारण चौथे में माता को पराक्रमी बनाता है,दसवें में पिता को पराक्रमी बनाता है,लगन में खुद को जुबान का पक्का बनाता है,और सप्तम में पत्नी या पति को कार्य में जल्दबाज बनाता है,लेकिन किसी प्रकार का अहित नही करता है.
  • केन्द्र और त्रिकोण भावों में यदि शुभ ग्रह हो,तथा तृतीय षष्ठ एवं एकादस भावों में पापग्रह तथा सप्तम भाव का स्वामी सप्तम में विराजमान हो,तो भी मंगली दोष का प्रभाव नही होता है.
  • वर अथवा कन्या की कुन्डली में मंगल शनि या अन्य कोई पाप ग्रह एक जैसी स्थिति में विराजमान हो तो भी मंगली दोष नही लगता है.
  • यदि वर कन्या दोनो की जन्म कुन्डली के समान भावों में मंगल अथवा वैसे ही कोई अन्य पापग्रह बैठे हों तो मंगली दोष नही लगता,ऐसा विवाह शुभप्रद दीर्घायु देने वाला और पुत्र पौत्र आदि को प्रदान करने वाला माना जाता है.
  • यदि अनुष्ठ भाव में मंगल वक्री,नीच (कर्क राशि में) अथवा शत्रु क्षेत्री (मिथुन अथवा कन्या ) अथवा अस्त हो तो वह खराब होने की वजाय अच्छा होता है.
  • जन्म कुन्डली में मंगल यदि द्वितीय भाव में मिथुन अथवा कन्या राशि का हो,द्वादस भाव में वृष अथवा कर्क का हो,चौथे भाव में मेष अथवा वृश्चिक राशि का हो,सप्तम भाव में मकर अथवा कर्क राशि का हो,और आठवें भाव में धनु और मीन का हो,अथवा किसी भी त्रिक भाव में कुम्भ या सिंह का हो,तो भी मंगल दोष नही होता है.
  • जिसकी जन्म कुन्डली में पंचम चतुर्थ सप्तम अष्टम अथवा द्वादस स्थान में मंगल विराजमान हो,तो उसके साथ विवाह नही करना चाहिये,यदि वह मंगल बुध और गुरु से युक्त हो, अथवा इन ग्रहों से देखा जा रहा हो,तो वह मंगल फ़लदायी होता है,और विवाह जरूर करना चाहिये.
  • शुभ ग्रहों से युक्त मंगल अशुभ नही माना जाता है,कर्क लगन में मंगल कभी दोष कारक नही होता है,यदि मंगल अपनी नीच राशि कर्क का अथवा शत्रु राशि तीसरे या छठवें भाव में विराजमान हो तो भी दोष कारक नही होता है.
  • यदि वर कन्या दोनो की जन्म कुन्डली में लग्न चन्द्रमा अथवा शुक्र से प्रथम द्वितीय चतुर्थ सप्तम अष्टम अथवा द्वादस स्थानों के अन्दर किसी भी स्थान पर मंगल एक जैसी स्थिति में बैठा हो,अर्थात वर की कुन्डली में जहां पर विराजमान हो उसी स्थान पर वधू की कुन्डली में विराजमान हो तो मंगली दोष नही रहता है.
  • परन्तु यदि वर कन्या में से केवल किसी एक की जन्म कुन्डली में ही उक्त प्रकार का मंगल विराजमान हो,दूसरे की कुन्डली में नही हो तो इसका सर्वथा विपरीत प्रभाव ही समझना चाहिये,अथवा वह स्थिति दोषपूर्ण ही होती है,यदि मंगल अशुभ भावों में हो तो भी विवाह नही करना चाहिये,परन्तु यदि गुण अधिक मिलते हो,तथा वर कन्या दोनो ही मंगली हो,तो विवाह करना शुभ होता है.
  • * यदि मंगल ग्रह वाले भाव का स्वामी बली हो, उसी भाव में बैठा हो या दृष्टि रखता हो, साथ ही सप्तमेश या शुक्र अशुभ भावों (6/8/12) में न हो।
  • * यदि मंगल शुक्र की राशि में स्थित हो तथा सप्तमेश बलवान होकर  
                केंद्र त्रिकोण में   हो।       
           
             * यदि गुरु या शुक्र बलवान, उच्च के होकर सप्तम में हो तथा मंगल निर्बल
                  या नीच राशिगत हो।
           
              * यदि वर-कन्या दोनों में से किसी की भी कुंडली में मंगल दोष हो तथा   
                  परकुंडली में उन्ही पाँच में से किसी भाव में कोई पाप ग्रह स्थित हो।
                                     कहा  गया है कि :-
        शनि भौमोअथवा कश्चित्‌ पापो वा तादृशोभवेत्‌।                                                        
                                                                    तेष्वेव भवनेष्वेव भौम-दोषः विनाशकृत्‌॥     

        इनके अतिरिक्त भी कई योग ऐसे होते हैं, जो कुजदोष का परिहार करते हैं।
              अतः मंगल के नाम पर मांगलिक अवसरों को नहीं खोना चाहिए :-
सौभाग्य की सूचिका भी है मंगली कन्या? :-
कन्या की जन्मकुंडली में प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम तथा द्वादशभाव में मंगल होने के बाद भी प्रथम (लग्न, त्रिकोण), चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम तथा दशमभाव में बलवान गुरु की स्थिति कन्या को मंगली होते हुए भी सौभाग्यशालिनी व सुयोग्यभार्या तथा गुणवान व संतानवान बनाती है।

|| कालसर्प योग एवं भ्रान्तियां ||

कालसर्प योग जातक में जीवटता, संघर्षशीलता एवं अन्याय के प्रति लड़ने के लिए अदम्य साहस का सृजन करता हैं । ऐसे जातक अपने ध्येय की सिद्धी के लिए अद्भुत संघर्षशक्ति पाकर उसका दोहन कर सफल होते हैं एवं लोकप्रियता प्राप्त करते हैं । अध्यात्मिक महापुरूषों एवं राजनैतिज्ञों को यह योग अत्यंत रास आता हैं । राजयोग भी यह प्रदान करता हैं । जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में व्यवसाय, कला, साहित्य, क्रीड़ा, फिल्म, उद्योग, राजनीति एवं आध्यात्मक के चरमोत्कर्ष पर इस योग वाले जातक पहुचे हैं । प्रथम भाव से द्वादश भाव तक बनने वाले अनंत कालसर्प योग से शेष नाग कालसर्प योग तक जातकों में विश्व क्षितिज के श्रेष्टतम महामानव शामिल हैं । उल्लेखनीय हैं कि स्वतंत्र भारत का जन्म भी कालसर्प योग में 15 अगस्त 1947 को हुआ था । भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू को भी कालसर्प योग था एवं नेहरू जी को शपथग्रहण का मुहूर्त निकालने वाले विश्व विख्यात ज्योतिषाचार्य पद्मभूषण पं. सूर्य नारायण व्यास को भी कालसर्प योग था ।
अतः कालसर्प योग से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं हैं विशेष रूप से कालसर्प योगधारी भारतवासी ज्योतिषीय सिद्धांतानुसार कि सामान योग वाले व्यक्तियों में सामंजस्य एवं मित्रता होती हैं एवं वे एक दूसरे के पूरक होते हैं देश के सर्वश्रेष्ठ नागरिक साबित होते हैं यह तालिका में अनेक उदाहरणों द्वारा सुस्पष्ट हैं । राहू क्रूर ग्रह हैं इसे शनि के तुल्य गुणों वाला माना गया हैं शनि के समान इस ग्रह में भी वास्तव में राहू एवं केतु कोई ग्रहीय पिंड न होकर छाया ग्रह हैं । हमें ज्ञात हैं कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा कर रही हैं एवं चन्द्रमा पृथ्वी की । पृथ्वी के परिभ्रमण वृत्त के दो बिन्दु परस्पर विपरीत दिशा में पड़ते हैं इन्ही काटबिन्दुओं (छायाओं) को राहू एवं केतु नाम दिया गया हैं । चूॅकि इस सौर मण्डलीय घटना का प्रभाव मानव जीवन पर पड़ता हैं इसलिए ज्योतिषीय गणना में इसे स्थान देकर कुण्डली में अन्य आध्यात्मिक, राजनैतिक चिंतन दीर्घ विचार, ऊॅचनीच सोचकर आगे बढ़ने की प्रवृत्ति पाई जाती हैं । राहू मिथुन राशि में उच्च एवं धनु राशि में नीच का होता हैं । कन्या इसकी मित्र राशि हैं । केतु इसके विपरीत धनु में उच्च एवं मिथुन में नीच का होता हैं । केतु मंगल के गुणों वाला परन्तु अपेक्षाकृत सौम्य ग्रह हैं । शनि, बुध एवं शुक्र राहू के मित्र एवं सूर्य, चन्द्र, मंगल शत्रु तथा गुरूसम हैं । जबकि मंगल केतु का मित्र सूर्य, शनि, राहू शत्रु एवं चन्द्र, बुध, गुरू सम ग्रह हैं । कालसर्प योग युक्त जातक की कुण्डली में सभी ग्रह राहू एवं केतु के मध्य एक ही ओर स्थित होते हैं। माना जाता हैं कि कालसर्प योग में राहू सर्प का सिर एवं केतु पूॅछ वाला भाग हैं । सभी अन्य ग्रह राहू के मुख में गटकाये जाने के कारण इस योग को विपरीत परिणाम का सृजनकर्ता कहा जाता हैं ।
मान्यता हैं कि पिछले जन्म में नागहत्या के कारण यह योग निर्मित होता हैं एवं इसी लिए ऐसे जातकों को सर्पभय हमेशा बना रहता हैं साथ ही स्वप्न में सर्प के दर्शन होते रहेते हैं । गोचर में कालसर्पयोग आने पर लगभग 15 दिवस तक यह सतत बना रहता हैंआवश्यक नहीं हैं कि कालसर्पयोग व पितृदोष की शांति त्रयम्बकेश्वर में ही करवायी जावे
इसकी शांति जहा भी पवित्र नदीं बहती हो उसका किनारा हो, प्रतिष्ठित शिव मन्दिर हो वहा पर की जा सकती हैं । कालसर्प की शान्ति हेतु लोग त्रयम्बकेश्वर जाते हैं लेकिन पूरे शिव पुराण में कहीं नहीं लिखा कि त्रयम्बकेश्वर में ही कालसर्पयोग व पितृदोष की शांति की जाती हैं । लोग भ्रम में हैं व एक भेड़ चाल सी बन गई हैं कि त्रयम्बकेश्वर जाना हैं । त्रयम्बकेश्वर में यजमानों को कर्मकाण्डी मन्दिर नहीं ले जाकर घर में ही पितृदोष व कालसर्प योग की शांति करवा देते हैं जिससे यजमानों को पूर्ण फल की प्राप्ति नहीं होती हैं । त्रयम्बकेश्वर द्वादश ज्योर्तिलिंगों में से एक हैं वहा जाने से तो धर्म की प्राप्ति होती हैं न कि केवल कालसर्पयोग शांत होता हैं । ईश्वर में मनुष्य को दण्ड देने के लिए घातक योग बनाये हैं तो उसका उपचार भक्ति एवं मंत्रों के माध्यम से बताया भी हैं
उपचार से कालसर्प योग समाप्त तो नहीं होता हैं, और होने वाले कष्टों से पूर्ण मुक्ति भी नहीं मिलती हैं लेकिन 25 से 85 प्रतिशत तक राहत मिलने की सम्भावनाये रहती हैं ।
                                                      कालसर्प योग निवारणकालसर्प
योग निवारण के अनेक उपाय हैं । इस योग की शांति विधि विधान के साथ योग्य विद्धान एवं अनुभवी ज्योतिषी, कुल गुरू या पुरोहित के परामर्श के अनुसार किसी कर्मकांडी ब्राह्मण से यथा योग्य समयानुसार करा लेने से दोष का निवारण हो जाता हैं । कुछ साधारण उपाय निम्न हैं:-
1. घर में वन तुलसी के पौधे लगाने से कालसर्प योग वालों को शान्ति प्राप्त होती हैं । 2. प्रतिदिन ‘‘सर्प सूक्त‘‘ का पाठ भी कालसर्प योग में राहत देता हैं ।
3. विश्व प्रसिद्ध तिरूपति बाला जी के पास काल हस्ती शिव मंदिर में भी कालसर्प योग शान्ति कराई जाती हैं।
4. इलाहाबाद संगम पर व नासिक के पास त्रयंबकेश्वर में व केदारनाथ में भी शान्ति कराई जाती हैं ।
5. ऊँ नमः शिवाय मंत्र का प्रतिदिन एक माला जप करें । नाग पंचमी का वृत करें, नाग प्रतिमा की अंगुठी पहनें ।
6. कालसर्प योग यंत्र की प्राण प्रतिष्ठा करवाकर नित्य पूजन करें । घर एवं दुकान में मोर पंख लगाये ।
7. ताजी मूली का दान करें । मुठ्ठी भर कोयले के टुकड़े नदी या बहते हुए पानी में बहायें ।
8. महामृत्युंजय जप सवा लाख , राहू केतु के जप, अनुष्ठान आदि योग्य विद्धान से करवाने चाहिए ।
9. नारियल का फल बहते पानी में बहाना चाहिए । बहते पानी में मसूर की दाल डालनी चाहिए ।
10. पक्षियों को जौ के दाने खिलाने चाहिए ।
11. पितरों के मोक्ष का उपाय करें । श्राद्ध पक्ष में पितरों का श्राद्ध श्रृृद्धा पूर्वक करना चाहिए । कुलदेवता की पूजा अर्चना नित्य करनी चाहिए ।
12. शिव उपासना एवं रूद्र सूक्त से अभिमंत्रित जल से स्नान करने से यह योग शिथिल हो जाता हैं ।
13. सूर्य अथवा चन्द्र ग्रहण के दिन सात अनाज से तुला दान करें ।
14. 72000 राहु मंत्र ‘‘ऊँ रां राहवे नमः‘‘ का जप करने से काल सर्प योग शांत होता हैं । 15. गेहू या उड़द के आटे की सर्प मूर्ति बनाकर एक साल तक पूजन करने और बाद में नदी में छोड़ देने तथा तत्पश्चात नाग बलि कराने से काल सर्प योग शान्त होता हैं । 16. राहु एवं केतु के नित्य 108 बार जप करने से भी यह योग शिथिल होता हैं । राहु माता सरस्वती एवं केतु श्री गणेश की पूजा से भी प्रसन्न होता हैं ।
17. हर पुष्य नक्षत्र को महादेव पर जल एवं दुग्ध चढाएं तथा रूद्र का जप एवं अभिषेक करें ।
18. हर सोमवार को दही से महादेव का ‘‘ऊँ हर-हर महादेव‘‘ कहते हुए अभिषेक करें । 20. राहु-केतु की वस्तुओं का दान करें । राहु का रत्न गोमेद पहनें । चांदी का नाग बना कर उंगली में धारण करें ।
21. शिव लिंग पर तांबे का सर्प अनुष्ठानपूर्वक चढ़ाऐ। पारद के शिवलिंग बनवाकर घर में प्राण प्रतिष्ठित करवाए ।