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माँ पीताम्बरा बगलामुखी |
उत्पत्ति का कारक :- विष्णु की तपस्या !
दिन :- मंगलवार !
जन्मस्थान :- सौराष्ट्र के हरिद्रासरोवर के वत्स तटस्थ जल में !
तिथि :- चतुर्दशी !
समय :- अर्धरात्रि !
जन्म पूर्व की स्थिति :- 'सुंदरी' की जलक्रीड़ा !
मूल स्वरूप :- महात्रिपुरसुंदरी !
सारांश :- वीर रात्रि में जन्म !
अथ वक्ष्यामी देवेशि बग्लोत्पत्तिकारणम !
पुरा कृतयुगे देवि ! वातक्षोभ उपस्थिते !!१!!
चराचरविनाशाय विष्णुश्चिंतपरायण !
तपस्यया च सन्तुष्टा महात्रिपुरसुंदरी !!२!!
हरिद्राख्या सरो दृष्ट्वा जल क्रीडा परायणा !
महापीतह्रदस्यान्ते सौराष्ट्रे बगलामबिकाम !!३!!
श्रीविध्यासंभवं तेजः विजृंभती इतस्ततः !
चतुर्दशी भौमयुक्ता मकारेण समानविता !!४!!
कुलॠक्षसमायुक्ता वीररात्रि प्रकीर्तिताः !
तस्यामेवार्धरात्रौ तु पीत ह्रद निवासिनी !!५!!
ब्रह्मास्त्रविध्या सञ्जाता त्रैलोक्य स्तंभिनी !
तत्तेजो विष्णुजं तेजो विध्याSनुध्योर्गतम !!६!!
( स्वतंत्रतन्त्र )
अर्थात :-
एक समय सत युग मे एक भयानक वात्याचक्र (तूफान) आया | वह इतना भयानक था कि उसके प्रभाव से समस्त चराचर जगत में त्राहि-त्राहि मच गयी | उस समय सेषशायी भगवान विष्णु अत्यंत चिंतित हुये एवं इसके शांत्यर्थ तप करने लगे |
भगवान नारायण की इस तपस्या प्रसन्न होकर भगवती महात्रिपुर सुंदरी ने सौराष्ट्र मे हरिद्रा नामक सरोवर को देखकर उस गाढ़े पीले रंग एवं अत्यंत गहरे सरोवर में जल क्रीडा करने के लिए प्रकट हुयी | उस समय उनकी जल क्रीडा क्रिया के कारण उनकी श्रीविध्या से एक लोकोत्तर एवं
अभूतपूर्व महातेज आविर्भूत होकर चतुर्दिक फ़ेल गया |
भगवती के जल-क्रीडा हेतु हरिद्रा-सरोवर में अवतरित होने कि तिथि चतुर्दशी थी, दिन मंगलवार था तथा रात्रि का समय था | उस रात्रि का नाम "वीररात्रि" पड़ा | उस रात्रि को पञ्च मकार से सेवित भगवती ने प्रकट होकर उस रात्रि उस गहरे एवं पीले ह्रद में ही निवास किया |
श्रीविद्या के महातेज से दूसरी ब्रह्मास्त्रविद्या का अभिर्भाव हुआ | उस ब्रह्मास्त्रविद्या का महातेज विष्णु से आभिर्भूत महातेज में विलीन हो गया और वह तेज विद्या एवं अनुविद्या मे लयीभूत हो गया |सांख्यायन तंत्र के अनुसार एक बार जब भगवान शंकर सभी शिव गणों के सहित कैलास पर विराजमान थे तब क्रौंचभेदन ने भगवान शिव से कहा :- हे प्रभु ! चापचर्या में निपुण युद्धचर्या मे भयानक एवं मायावी राक्षसों पे मैं कैसे विजय प्राप्त करूँ | भगवान शिव ने कहा की शत्रुओं का संहार बिना ब्रह्मास्त्र के संभव नहीं है - "ब्रह्मास्त्रेण विना शत्रोः संहारो न भवेत किलः |"
इसके बाद उन्होने क्रौंचभेदन को :-
ब्रह्मास्त्रस्तंभिनी विद्या, स्तब्धमायानु प्रवृत्तिरोधिनी विद्या, बग्लामंत्र जीवनविद्या, प्राणिप्रज्ञापहारिका विद्या, षटकर्माधारविद्या, षडविदयागमपूजिता तिरस्कृताखिला विद्या, त्रिशक्ति बगला विद्या (विद्या च बगला नाम्नी), वाक्यस्तंभिनी विद्या, महाविद्या कमलासनजीवनीं, -इस नामावली का उपदेश दिया |
इस नामावली मे जीतने भी कर्मों का उल्लेख हुआ है उन समस्त कर्मों का साधन बगलामुखी ब्रह्मास्त्र विद्या से किया जा सकता है |
इस विद्या की सिद्धि के लिए भगवान शंकर को गुरु स्वरूप माने | क्यूँ की इस विद्या के प्रथम उपदेष्टा भगवान शंकर ही हैं |
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