बुधवार, 24 अक्टूबर 2012

मुहूर्त्त विचार-

मुहूर्त को भारतीय ज्योतिष में किसी कार्य विशेष को प्रारंभ एवं संपादित करने हेतु एक निर्दिष्ट शुभ समय कहा गया है. ज्योतिष के अनुसार शुभ मुहूर्त में कार्य प्रारंभ करने से कार्य बिना किसी रुकावट के और शीघ्र संपन्न होता है. चाहे प्रश्न शास्त्र हो या जन्म कुण्डली दोनों ही मुहूर्त्त पर आधारित हैं. मुहूर्त पंचांग के पांच अंगों अर्थात तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण द्वारा निर्मित होता है. पंचाग गणना के आधार पर शुभ और अशुभ मुहूर्तों का निर्धारण किया जाता है. मुहूर्त्त को प्रत्येक कार्य के अनुसार भिन्न भिन्न रुप में लिया जाता है.

मुहूर्त्त संस्कार -
भारतीय संस्कृति के षोडश संस्कारों में मुहूर्त के विषय में मुहूर्त्त शास्त्र में पृथक रूप से वर्णन प्राप्त होत है. जिसमें यह बताया गया है कि तिथि, वार, नक्षत्र आदि के संयोग से भी मुहूर्त बनते हैं, जिनमें संस्कार एवं विशिष्ट कार्यों के अतिरिक्त अन्य कार्य भी किये जा सकते हैं.
शुभ मुहूर्त्त -
शुभ मुहूर्त वरदान स्वरुप होते हैं, विवाह, मुंडन, गृहारंभादि शुभ कार्यों में मास, तिथि, नक्षत्र, योगादि के साथ लग्न की शुद्धि को विशेष महत्व एवं प्रधानता दी जाती है. तिथि को देह, चंद्रमा को मन, योग, नक्षत्र आदि को शरीर के अंग तथा लग्न को आत्मा माना गया है इस प्रकार मुहूर्त का महत्व स्वयं में प्रर्दशित हो जाता है. मुहूर्त शास्त्र में कई प्रकार के शुभ मुहूर्त्तों का वर्णन किया गया है जैसे सर्वार्थसिद्धि योग, सिद्धि योग, अमृतसिद्धि योग, राज योग, रविपुष्य योग, गुरुपुष्य योग, द्वि-त्रिपुष्कर योग, पुष्कर योग तथा रवि योग इत्यादि योग बताए गए हैं.
मुहूर्त संबंधी महत्वपूर्ण तथ्य -
मुहूर्त्त संबंधी कुछ महत्वपूर्ण बातों के विषय में ध्यान देना आवश्यक होता है. मुहूर्त्त में तिथियों का ध्यान रखना चाहिए जैसे रिक्ता में कार्यों का आरंभ न करें तथा अमावस्या तिथि में मांगलिक कार्य वर्जित होते हैं. जब कोई भी ग्रह जिस दिन अपना राशि परिवर्तन कर रहा हो तो उस समय न किसी भी कार्य की योजना बनाएं और न ही कोई नया कार्य आरंभ करें.

जब भी कोई ग्रह उदय या अस्त हो या जन्म राशि का या जन्म नक्षत्र का स्वामी यदि अस्त हो, वक्री हो अथवा शत्रु ग्रहों के मध्य में हो तो वह समय अनुकूल कार्य को करने के लिए उपयुक्त नहीं होता. मुहूर्त्त में इन सभी बातों का ध्यान रखना आवश्यक होता है.
कुण्डली का मुहूर्त्त से संबंध -
जन्म कुण्डली अनुकूल मुहूर्त्त का निर्धारण करने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. जन्म समय की ग्रह स्थिति को बदला तो नहीं जा सकता लेकिन शुभ समय मुहूर्त्त को अपना कर कार्य को सफलता की और उन्मुख किया जा सकता है. ज्योतिष के अनुसार कुण्डली के दोषों के प्रभाव से बचने के लिए यदि अच्छी दशा में तथा शुभ गोचर में शुभ मुहूर्त्त का चयन किया जाए तो कार्य की शुभता में वृद्धि हो सकती है.
मुहूर्त महत्व-
किसी भी कार्य को करने हेतु एक अच्छे समय की आवश्यकता होती है. हर शुभ मुहूर्त का आधार तिथि, नक्षत्र, चंद्र स्थिति, योगिनी दशा और ग्रह स्थिति के आधार पर किया जाता है. शुभ कार्यों के प्रारंभ में भद्राकाल से बचना चाहिये. चर, स्थिर लग्नों का ध्यान रखना चाहिए. जिस कार्य के लिए जो समय निर्धारित किया गया है यदि उस समय पर उक्त कार्य किया जाए तो मुहूर्त्त के अनुरूप कार्य सफलता को प्राप्त करता है

सोमवार, 2 अप्रैल 2012

दुर्गासप्तशती के पाठ के विषय मे एक सामान्य विषय एवं पाठ क्रम :-

माँ दुर्गा 
दुर्गासप्तशती के पाठ के विषय मे एक सामान्य विषय एवं पाठ क्रम :-
कामना भेद से विभिन्न प्रकार से दुर्गा पाठ किए जाते हैं, जो कि निर्णय सिन्धु मे उल्लिखित है कि दुर्गाभक्तितर गिणी के अनुसार इस प्रकार से हैं :-
01 :- महाविद्या क्रम (सर्वकामना हेतु) :- इसमे क्रमशः प्रथम, मध्यम व उत्तर चरित्र का पाठ किया जाता है !
02:- महातंत्री (शत्रु नाश, लक्ष्मी प्राप्ति हेतु) :- उत्तर चरित्र, प्रथम चरित्र, मध्यम चरित्र का पाठ किया जाता है !
03:- चन्डी (शत्रु नाश हेतु) :- उत्तर, मध्यम, प्रथम चरित्र का पाठ किया जाता है !
04:- महाचण्डी (शत्रु नाश, लक्ष्मी प्राप्ति हेतु) :- उत्तर चरित्र, प्रथम चरित्र, मध्यम चरित्र का पाठ किया जाता है !
05:- रूप दीपिका ( विजय एवं आरोग्यता के लिए) :- रूपं देहि जयं देही यशो देही........ इस अर्ध श्लोक से संपुटित करके प्रथम, उत्तर, मध्यम चरित्र का पाठ करना चाहिए !
इसके अलावा तंत्र शास्त्रों मे निम्न क्रम उल्लिखित हैं :-
01:- निकुंभला ( रक्षा, विजय हेतु) :- शूलेन पाहिनो देवी............ इस मंत्र से संपुटित करके मध्यम, प्रथम, उत्तर चरित्र का पाठ करना चाहिए !
02:- योगिनी (बालोपद्रव शमन हेतु) :- प्रतेक चरित्र से पहले संबन्धित योगिनियों का पाठ एवं प्रटेक मंत्र को वं, शम, षम, सं से संपुटित करके पाठ करें !
03:- विलोम (शत्रु नाश हेतु) संहार क्रम :- तेहरवें अध्याय के अंतिम श्लोक से प्रारम्भ कर प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक पर समाप्त करें ! अर्थात पूरा उल्टा पाठ करें !
04:- प्रतिअध्याय विलोम लोम पाठ ( उत्कीलन क्रम) :- इसमे इस करम से पाठ होगा तेहरवां-प्रथम, बारहवां-दूसरा, ग्यारहवाँ-तीसरा, दसवां-चौथा, नवम-पंचम, आठवाँ-छठा, सातवाँ विलोम ओर फिर सातवाँ ही अनुलोम पाठ करें !
05:- चतुःषष्ठी पड़ी युक्त :- (क) :- श्री सूक्त या पुरुसूक्त का पाठ प्रटेक अध्याय के साथ करें !
(ख) :- महिषासुर वध के समय 64 देवियों का प्राकाट्य भी लिखा है, उनकी नामावली का पाठ भी प्रति अध्याय के साथ किया जा सकता है !
06:- तंत्रात्मक सप्तशती :- प्रतेक मंत्र का विनियोग न्यास ध्यान युक्त पाठ करें !
07:- इसके अलावा अन्य मंत्रों जैसे बगलामुखी, महामृतुंजय आदि से संपुटित करके भी अनेक कामनाओं की पूर्ति की जाती है !

नोट :- (क) चरित्रों का वर्णन इस प्रकार से है :- प्रथम चरित्र ( प्रथम अध्याय), मध्यम चरित्र ( दूसरा-तीसरा-चौथा अध्याय), उत्तर चरित्र (पाँचवाँ- छठा-सातवाँ-आठवाँ-नौवाँ-दसवाँ-ग्यारहवाँ-बारहवाँ-तेरहवाँ अध्याय) !
(ख) प्रथम अध्याय के पूर्व (पहले) कवच, अर्गला, कीलक, नवार्ण मंत्र जप व रात्रि सूक्त का पाठ करें व अंत मे देवीसूक्त नवार्ण मंत्र जप एवं त्रिरहस्यों का पाठ करें !

दुर्गा पाठ के छः मुख्य अंग माने गए हैं :-
01-कवच, 02-अर्गला, 03-कीलक, 04-प्राधानिक-रहस्य, 05-वैकृतिक-रहस्य, 06-मूर्ति-रहस्य !
सप्तशती के प्रसिद्ध टीकाकार नागोजी भट्ट का मत है कि :- इस प्रकार पाठ करें कवच, अर्गला, कीलक, का पाठ करें व फिर ऋस्यादिन्यास के सहित नवार्ण मंत्र जप, इसके बाद रात्रि सूक्त ओर फिर पाठ तथा अंत मे देविसूक्त का पाठ तदनंतर 108 बार नवर्ण मंत्र का जप करें !
एक मत यह भी है की सप्तशती का पाठ करने से पूर्व उसका शापोद्धार, उत्कीलन, आदि करना चाहिए !
एक मत है की पाठ से पूर्व मार्कन्डेय पुराणोक्त सरस्वती सूक्त का भी पाठ करें !
रावण के मत से निकुंभला पाठ अति श्रेष्ठ है !
मेरे व्यक्तिगत मत से सप्तशती क्रम इस प्रकार रखना श्रेष्ठ है पहले माध्यम चरित्र, फिर प्रथम चरित्र, ओर फिर उत्तर चरित्र का पाठ करना चाहिए क्यूंकि इस क्रम से पाठ करने पर पाठ का उत्कीलन भी हो जाता है ओर अधिक सफलता भी मिलती है !

सम्पूर्ण दुर्गा पाठ का क्रम (सुप्रसिद्ध टिकाओं के आधार पर एवं निर्णय सिंधु के आधार पर ):-
01:- सर्व प्रथम आचमन, प्राणायाम, पवित्रीकरण, आसन पवित्रीकरण आदि करें |
02:- फिर संकल्प करें |
03:- फिर ब्रह्मादि शाप विमोचन करें यह अति आवश्यक है क्यूँ की लिखा है की - "इन (ब्रह्मादि शाप विमोचन ) मंत्रों को पढ़ कर ही पाठ करें दिन या रात अपनी सुविधा अनुसार पाठ करें, तथा जो इन मंत्रों को पढे या जाने बिना पाठ करता है वह स्वयं एवं यजमान के नाश का कारण बनता
है |
04:- इसके बाद सिद्धकुंजिका-स्तोत्र का पाठ करें !
05:- तत्पश्चात कवच, अर्गला, कीलक का पाठ करें |
06:- फिर ऋष्यादि न्यास पूर्वक नवार्ण मंत्र का जप करें |
07:- फिर तन्त्रोक्त रात्रि सूक्तम का पाठ करें |
08:- इसके पश्चात सप्तशती न्यास व ध्यान करें |
09:- फिर चरित्र (अध्याय) पाठ करें, अध्याय पाठ अपनी सुविधा अनुसार क्रम, उत्क्रम, चंड, महाचण्डी आदि जो भी क्रम उचित लगे उस अनुसार करें |
10:- चरित्र (अध्याय) पाठ समाप्ति के बाद उत्तर न्यास करें तथा तन्त्रोक्त देवी सूक्त का पाठ
करें |
11:- तत्पश्चात नवार्न मंत्र का जप करें तथा त्रिरहस्य ( प्राधानिक-रहस्य, वैकृतिक-रहस्य, मूर्ति-रहस्य) का पाठ करें |
12:- फिर उत्तर पूजन एवं क्षमापन स्तोत्र का पाठ करें |
इतना ही पाठ आवश्यक है |

संपुट कैसे लगाएँ :-
संपुट तीन प्रकार से लगाए जाते हैं 01-उदय-संपुट, 02-अस्त-संपुट, 03-अर्द्ध-संपुट |
01:- उदय संपुट :- इस संपुट मे पहले संपुट मंत्र फिर सप्तशती मंत्र फिर संपुट मंत्र सीधा लगाया जाता है | जैसे :- ॐ एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः | ऐं मार्कन्डेय उवाच | एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः ||

02:- अस्त संपुट :- इस संपुट मे पहले संपुट मंत्र सीधा फिर फिर सप्तशती मंत्र फिर संपुट मंत्र उल्टा लगाया जाता है | जैसे :- ॐ एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः | ऐं मार्कन्डेय उवाच | क्षत्रियर्षभःसुरथःलब्ध्वा वरं देव्या एवं ॐ ||

03:- अर्द्ध संपुट :- कामना मंत्र को सिर्फ एक बार पहले या अंत मे पढ़ा जाता है | जैसे :- ॐ एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः | ऐं मार्कन्डेय उवाच |
अथवा
ॐ ऐं मार्कन्डेय उवाच | एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः |
इन तीन प्रकार के संपुटों के विधान का विवरण श्री शिव-पार्वती के संवाद के अंतर्गत रुद्र यामलतंत्रादि ग्रन्थों मे प्राप्त होता है |

दुर्गा पाठ मे वृद्धि (बढ़ते) क्रम का विचार :-
वृद्धि पाठ पाँच दिन का होता है, यह क्रम बिना संपुट के ही संभव है | प्रथम दिन एक पाठ, दूसरे दिन दो, तीसरे दिन तीन, चौथे दिन चार इस प्रकार चार दिन मे एक ब्राह्मण द्वारा दस पाठ किए जाते है ओर दस ब्राह्मणों द्वारा शतचंडी का विधान पूरा हो जाता है | इसके साथ ही एक मूल पाठ के साथ 10 माला अलग से नवार्ण मंत्र जप करने का भी विधान है | तथा पांचवें दिन दशांश हवन दशांश ब्राह्मण भोजन व कुमारिका बोजान करवाएँ !

यह दुर्गा सप्तशती के विभिन्न पाठ क्रम थे अतिरिक्त जानकारी हेतु संपर्क करें :-
गायत्री ज्योतिष केंद्र एवं शोध संस्थान 14 बीघा, टिहरी गढ़वाल, ऋषिकेश
फोन नंबर :- 9759487768, 9548712787
माँ पीताम्बरा बगलामुखी 
माँ पीताम्बरा बगलामुखी की उत्पत्ति :-
उत्पत्ति का कारक :- विष्णु की तपस्या !
दिन :- मंगलवार !
जन्मस्थान :- सौराष्ट्र के हरिद्रासरोवर के वत्स तटस्थ जल में !
तिथि :- चतुर्दशी !
समय :- अर्धरात्रि !
जन्म पूर्व की स्थिति :- 'सुंदरी' की जलक्रीड़ा !
मूल स्वरूप :- महात्रिपुरसुंदरी !
सारांश :- वीर रात्रि में जन्म !

अथ वक्ष्यामी देवेशि बग्लोत्पत्तिकारणम !
पुरा कृतयुगे देवि ! वातक्षोभ उपस्थिते !!१!!
चराचरविनाशाय विष्णुश्चिंतपरायण !
तपस्यया च सन्तुष्टा महात्रिपुरसुंदरी !!२!!
हरिद्राख्या सरो दृष्ट्वा जल क्रीडा परायणा !
महापीतह्रदस्यान्ते सौराष्ट्रे बगलामबिकाम !!३!!
श्रीविध्यासंभवं तेजः विजृंभती इतस्ततः !
चतुर्दशी भौमयुक्ता मकारेण समानविता !!४!!
कुलॠक्षसमायुक्ता वीररात्रि प्रकीर्तिताः !
तस्यामेवार्धरात्रौ तु पीत ह्रद निवासिनी !!५!!
ब्रह्मास्त्रविध्या सञ्जाता त्रैलोक्य स्तंभिनी !
तत्तेजो विष्णुजं तेजो विध्याSनुध्योर्गतम !!६!!
( स्वतंत्रतन्त्र )
अर्थात :-
एक समय सत युग मे एक भयानक वात्याचक्र (तूफान) आया | वह इतना भयानक था कि उसके प्रभाव से समस्त चराचर जगत में त्राहि-त्राहि मच गयी | उस समय सेषशायी भगवान विष्णु अत्यंत चिंतित हुये एवं इसके शांत्यर्थ तप करने लगे |
भगवान नारायण की इस तपस्या प्रसन्न होकर भगवती महात्रिपुर सुंदरी ने सौराष्ट्र मे हरिद्रा नामक सरोवर को देखकर उस गाढ़े पीले रंग एवं अत्यंत गहरे सरोवर में जल क्रीडा करने के लिए प्रकट हुयी | उस समय उनकी जल क्रीडा क्रिया के कारण उनकी श्रीविध्या से एक लोकोत्तर एवं
अभूतपूर्व महातेज आविर्भूत होकर चतुर्दिक फ़ेल गया |
भगवती के जल-क्रीडा हेतु हरिद्रा-सरोवर में अवतरित होने कि तिथि चतुर्दशी थी, दिन मंगलवार था तथा रात्रि का समय था | उस रात्रि का नाम "वीररात्रि" पड़ा | उस रात्रि को पञ्च मकार से सेवित भगवती ने प्रकट होकर उस रात्रि उस गहरे एवं पीले ह्रद में ही निवास किया |
श्रीविद्या के महातेज से दूसरी ब्रह्मास्त्रविद्या का अभिर्भाव हुआ | उस ब्रह्मास्त्रविद्या का महातेज विष्णु से आभिर्भूत महातेज में विलीन हो गया और वह तेज विद्या एवं अनुविद्या मे लयीभूत हो गया |सांख्यायन तंत्र के अनुसार एक बार जब भगवान शंकर सभी शिव गणों के सहित कैलास पर विराजमान थे तब क्रौंचभेदन ने भगवान शिव से कहा :- हे प्रभु ! चापचर्या में निपुण युद्धचर्या मे भयानक एवं मायावी राक्षसों पे मैं कैसे विजय प्राप्त करूँ | भगवान शिव ने कहा की शत्रुओं का संहार बिना ब्रह्मास्त्र के संभव नहीं है - "ब्रह्मास्त्रेण विना शत्रोः संहारो न भवेत किलः |"
इसके बाद उन्होने क्रौंचभेदन को :-
ब्रह्मास्त्रस्तंभिनी विद्या, स्तब्धमायानु प्रवृत्तिरोधिनी विद्या, बग्लामंत्र जीवनविद्या, प्राणिप्रज्ञापहारिका विद्या, षटकर्माधारविद्या, षडविदयागमपूजिता तिरस्कृताखिला विद्या, त्रिशक्ति बगला विद्या (विद्या च बगला नाम्नी), वाक्यस्तंभिनी विद्या, महाविद्या कमलासनजीवनीं, -इस नामावली का उपदेश दिया |
इस नामावली मे जीतने भी कर्मों का उल्लेख हुआ है उन समस्त कर्मों का साधन बगलामुखी ब्रह्मास्त्र विद्या से किया जा सकता है |
इस विद्या की सिद्धि के लिए भगवान शंकर को गुरु स्वरूप माने | क्यूँ की इस विद्या के प्रथम उपदेष्टा भगवान शंकर ही हैं |

बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

ज्योतिष में शकुन शास्त्र का महत्व :-

यद्यपि वर्तमान समय में शकुन शास्त्र का बहुविध प्रचलन है की और शकुन शास्त्र विषयक बहुतायत ग्रन्थ बाजार में उपलब्ध है किन्तु फिर भी हम एक लघु प्रयास कर रहे है और सुभासुभ सकुनों के बारे में बता रहे है :-
शकुन अर्थात हमारे सामने होने वाले सुभासुभ घटनाएं | शकुन शास्त्र का बहुत प्राचीन समय से प्रचलन है और इसका प्रचलन भारत में ही नहीं वरन विदेशों में भी हमेसा प्रयोग में रहा शेक्सपियर के सब्दों में :- "जब भिखारी मरते हैं तो कोई धूम केतु नहीं दिखाई देते किन्तु किन्तु जब कोई राजकुमार मरता है तो सारा ब्रह्माण्ड प्रज्वलित हो जाता है |
शकुन मुख्य रूप से पांच प्रकार के होते है :-
०१- भौम :-
ये पृथिवी से सम्बंधित होते हैं जैसे की भूकंप, ज्वालामुखी, तूफ़ान, झंझावत, अकाल, बाढ़ आदि |
०२- अंतरिक्ष :-
ये आकाश से सम्बंधित होते हैं जैसे की ग्रहण, उल्कापात, ग्रहों का उदयास्त, ग्रह युद्ध, ग्रह
   युति आदि |
०३- स्वप्निक :-
स्वप्न में द्रिस्तिगोचार होने वाले सुभाशुभ के आधार पर भावी घटनाओं का उदघाटन होना आदि |
०४- शारीरिक :-
ये शरीर में निर्मित चिन्हों के आधार पर जैसे की हाथ पैरों में निर्मित तिलादी, शरीर के स्पर्श से सूचित संकेतों के आधार पर सुभाशुभ फल कथन | प्राचीन काल में इसे सामुद्रिक शास्त्र के नाम से जाना जाता था |
०५- विभिन्न शकुन :-
वे शकुन जो उपरोक्त चार श्रेणियों में नहीं आते उन्हें स्थूलतः विभिन्न शकुनों की श्रेणी में रखा जाता है | यथा "कोई भी व्यक्ति किसी नष्ट वास्तु के विषय में प्रश्न करने आया हो और आप कुछ ढूंढ रहे हों और वह मिल जाए तो कह दीजिये की आपकी नष्ट वास्तु शीघ्र प्राप्त हो जायेगी" इस प्रकार के शकुन उपरोक्त चार श्रेणी के शकुनों में नहीं आते किन्तु फल दाई सिद्ध होते हैं |

सामान्य रूप से शुभाशुभ शकुन :-
सामान्य सुभ शकुन :-
बन्दर, घोडा, भालू, हाथी आदि का नजर आना व उनकी आवाजों का सुनाई देना | पके हुए चावल (भात), दूध, दलिया, मादक पेय, विषम संख्या के पशु, प्रसिद्ध व्यक्ति, ब्राहमण, अमूल्य रत्न, मधु, घी, इत्र, हल्की वायु, आँखों को प्रीतिकर लगने वाली सभी वस्तुएं | भोजन से पहले, वस्त्र पहनने से पहले, सोने से पहले, शिक्षा ग्रहण करने से पहले, फसलों की बुवाई करने से पहले छींक आना सुभ है |
बांसुरी, शंख, गायों की आवाजें, प्रश्न करता बिना किसी गतिविधि के शांत हो और उसके मुख पर प्रशन्नता का भाव हो, मधुर व सुखद आवाजें सुनाई दे रही हों, प्रश्न करता द्वारा स्वच्छ व सुन्दर हलके रंग का वस्त्र पहना हो, बांयी ओर बिल्ली का दिखायी देना अपने मुहँ में गाय कुछ खाध्य सामग्री लिए हुए जुगाली कर रही हो, सूअर यदि पूरी तरह से कीचड से सना हुआ दिखे, प्रश्नकर्ता सुभ वस्तुओं जैसे की दर्पण, स्वर्ण, भ्रिन्गपत्र, पुष्पों, आदि का स्पर्श तो सुभ होता है |

सामान्य असुभ शकुन :-
सर्प, उल्लू, छिपकली, गधा, बिल्ली का नजर आना व उनकी आवाजें सुनाई देना या किसी अन्य कर्कश आवाजों का सुनाई देना, गोबर, मलमूत्र, नमक, मिर्च, राख (भस्म), कोयला, काला चना, हिंजड़े, सरसों, झंझावत, प्रकाश या तेल होते हुए भी बत्ती या दीपक का बुझ जाना, कोई बर्तन गिरना या टूटना, दरवाजे की अचानक आवाज करना, आँखों को अप्रीतिकर लगने वाली सभी वस्तुएं | किसी कार्य के प्रारम्भ से पूर्व ही छींक आना, कौओं, गधों भैंसों की आवाजें सुनाई देना प्रश्नकर्ता की बेचैनी व उटपटांग हरकतें करना, हाथ पैरों का हिलाना, प्रश्न करता ने गन्दा-मैला-फटा-लाल या छपाईदार वस्त्र पहना हो, बिल्ली का पैरों का सूंघना, बिल्ली का किसी सोये हुए व्यक्ति के ऊपर से उछल कर जाना, कुत्ते का मुह में हड्डी पकडे हुए दिखाई देना, प्रश्नकर्ता असुभ वस्तुओं जैसे की राख चाक, चाक़ू, तलवार, रस्सी, आदि का स्पर्श करे दो असुभ होता है |

विशेष प्रश्नों के समय सुभाशुभ शकुन :-

०१:- रोगी के सम्बन्धी प्रश्नों के समय :-
सुभ शकुन :-
एक जीवत प्राणी, मानव या पूर्वोक्त सुभ पशु दिखाई दे, कफादी की बीमारियों के आलावा अन्य बीमारियों में दवा लेने से बिकुल पूर्व छींक आना |
असुभ शकुन :-
डाह संस्कार में प्रयुक्त होने वाली वस्तुएं जैसे सफ़ेद पुष्प, दही, नए वस्त्र, पात्र का गिर के टूट जाना, सूर्यास्त के समय आकाश का अचानक लाल या अँधेरा दिखाई देना आदि |

०२:- विवाह के प्रश्नों में :-
सुभ शकुन :-
कोई व्यक्ति वस्तुओं जोड़ा लाता दिखाई दे, अचानक दो व्यक्ति (प्रश्न कर्ताओं के अतिरिक्त) आते हुए दिखाई दें, प्रश्नकर्ता सर या छाती का स्पर्श करे या अपने दोनों हाथों को संयुक्त करे, यदि प्रश्न के समय एक पुरुष दो स्त्रियों के साथ या एक स्त्री दो पुरुषों के साथ दिखे तो पुनर्विवाह होता है ।

सोमवार, 9 जनवरी 2012

श्रीरामरक्षास्तोत्र:-

श्रीगणेशाय नमः
अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमंत्रस्य ।
बुधकौशिकऋषिः ।
श्रीसीतारामचन्द्रो देवता ।
अनुष्टुप् छन्दः । सीता शक्तिः ।
श्रीमद्धनुमान् कीलकम् ।
श्रीरामचंद्रप्रीत्यर्थे जपेविनियोगः ।
अथ ध्यानम् ।
ध्यायेदाजानबाहुं धृतशरधनुषंबद्धपद्मासनस्थम् ।
पीतं वासो वसानंनवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम् ।
वामाङ्कारुढसीतामुखकमलमिलल्लोचनंनीरदाभं ।
नानालङ्कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनंरामचंद्रम् ॥
इति ध्यानम् ।


चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम् ।
एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम् ॥१॥
ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामंराजीवलोचनम् ।
जानकीलक्ष्मणोपेतं जटामुकुटमण्डितम्॥२॥
सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तंचरान्तकम्।
स्वलीलया जगत् त्रातुम् आविर्भूतमजंविभुम् ॥३॥
रामरक्षां पठेत् प्राज्ञः पापघ्नींसर्वकामदाम् ।
शिरो मे राघवः पातु भालं दशरथात्मजः॥४॥
कौसल्येयो दृशौ पातुविश्वामित्रप्रियः श्रुती ।
घ्राणं पातु मखत्राता मुखंसौमित्रिवत्सलः ॥५॥
जिव्हां विद्यानिधिःपातु कण्ठंभरतवन्दितः ।
स्कन्धौ दिव्यायुधःपातु भुजौभग्नेशकार्मुकः ॥६॥
करौ सीतापतिःपातु हृदयंजामदग्न्यजित् ।
मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिंजाम्बवदाश्रयः ॥७॥
सुग्रीवेशः कटी पातु सक्थिनीहनुमत्प्रभुः ।
ऊरू रघूत्तमः पातु रक्षःकुलविनाशकृत् ॥८॥
जानुनी सेतुकृत् पातु जङ्घेदशमुखान्तकः ।
पादौ बिभीषणश्रीदः पातु रामोऽखिलंवपुः ॥९॥
एतां रामबलोपेतां रक्षां यः सुकृतीपठेत् ।
सचिरायुः सुखी पुत्री विजयी विनयीभवेत् ॥१०॥
पातालभूतलव्योमचारिणश्छद्मचारिणः ।
न द्रष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितंरामनामभिः ॥११॥
रामेति रामभद्रेति रामचंद्रेति वास्मरन् ।
नरो न लिप्यते पापैर्भुक्तिंमुक्तिं च विन्दति ॥१२॥
जगज्जेत्रैकमन्त्रेणरामनाम्नाभिरक्षितम् ।
यः कण्ठे धारयेत्तस्य करस्था सर्वसिध्दयः ॥१३॥
वज्रपञ्जरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत् ।
अव्याहताज्ञः सर्वत्र लभते जयमङ्गलम्॥१४॥
आदिष्टवान् यथा स्वप्नेरामरक्षामिमां हरः ।
तथा लिखितवान् प्रातः प्रबुध्दोबुधकौशिकः ॥१५॥
आरामः कल्पवृक्षाणां विरामःसकलापदाम् ।
अभिरामस्त्रिलोकानां रामः श्रीमान् सनः प्रभुः ॥१६॥
तरुणौ रूपसंपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ ।
पुण्डरीकविशालाक्षौचीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥१७॥
फलमूलाशिनौ दान्तौ तापसौब्रह्मचारिणौ ।
पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौरामलक्ष्मणौ ॥१८॥
शरण्यौ सर्वसत्त्वानां श्रेष्ठौसर्वधनुष्मताम् ।
रक्षःकुलनिहन्तारौ त्रायेतां नौरघूत्तमौ ॥१९॥
आत्तसज्यधनुषाविषुस्पृशावक्षयाशुगनिषङ्गसङ्गिनौ ।
रक्षणाय मम रामलक्ष्मणावग्रतः पथिसदैव गच्छताम् ॥२०॥
संनद्धः कवची खड्गी चापबाणधरो युवा ।
गच्छन् मनोरथोऽस्माकं रामः पातु सलक्ष्मणः ॥२१॥
रामो दाशरथिः शूरो लक्ष्मणानुचरो बली।
काकुत्स्थः पुरुषः पूर्णः कौसल्येयोरघुत्तमः ॥२२॥
वेदान्तवेद्यो यज्ञेशःपुराणपुरुषोत्तमः ।
जानकीवल्लभः श्रीमानप्रमेयपराक्रमः॥२३॥
इत्येतानि जपन् नित्यं मद्भक्तःश्रध्दयान्वितः ।
अश्वमेधाधिकं पुण्यं संप्राप्नोति नसंशयः ॥२४॥
रामं दूर्वादलश्यामं पद्माक्षंपीतवाससम् ।
स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न तेसंसारिणो नरः ॥२५॥
रामं लक्ष्मणपूर्वजं रघुवरं सीतापतिंसुंदरम्
काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिंविप्रप्रियं धार्मिकम् ।
राजेन्द्रं सत्यसन्धं दशरथतनयंश्यामलं शान्तमूर्तिं
वन्दे लोकाभिरामं रघुकुलतिलकं राघवंरावणारिम् ॥२६॥
रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे ।
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः॥२७॥
श्रीराम राम रघुनंदन राम राम
श्रीराम राम भरताग्रज राम राम ।
श्रीराम राम रणकर्कश राम राम
श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥२८॥
श्रीरामचंद्रचरणौ मनसा स्मरामि
श्रीरामचंद्रचरणौ वचसा गृणामि ।
श्रीरामचंद्रचरणौ शिरसा नमामि
श्रीरामचंद्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥२९॥
माता रामो मत्पिता रामचंद्रः स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्रः ।
सर्वस्वं मे रामचंद्रो दयालुर्नान्यंजाने नैव जाने न जाने ॥३०॥
दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे तुजनकात्मजा ।
पुरतो मारुतिर्यस्य तं वंदेरघुनंदनम् ॥३१॥
लोकाभिरामं रणरङ्गधीरं राजीवनेत्रंरघुवंशनाथम् ।
कारुण्यरुपं करुणाकरं तंश्रीरामचंद्र शरणं प्रपद्ये ॥३२॥
मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेंद्रियंबुध्दिमतां वरिष्ठम् ।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतंशरणं प्रपद्ये ॥३३॥
कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम्।
आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम् ॥३४॥
आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम् ।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयोनमाम्यहम् ॥३५॥
भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसंपदाम् ।
तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम्॥३६॥
रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशंभजे
रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मैनमः ।
रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्यदासोऽस्महं
रामे चित्तलयः सदा भवतु मे भो राममामुध्दर ॥३७॥
रामरामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनामतत्तुल्यं रामनाम वरानने॥३८॥
इति श्रीबुधकौशिकविरचितंश्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम् ।
॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु ॥

बुधवार, 4 जनवरी 2012

चश्मा उतर जाएगा :-

लगातार कम्प्यूटर पर काम करने व पढाई के अधिक बोझ के साथ ही,विटामिन व पौष्टिक खाने की कमी के कारण भी अधिकांश लोगों की आंखे कमजोर होती जा रही हैं। अक्सर देखने में आता है कि कम उम्र के लोगों को भी जल्दी ही मोटे नम्बर का चश्मा चढ़ जाता है।अगर आपको भी चश्मा लगा है तो आपका चश्मा उतर सकता है। नीचे बताए नुस्खों को चालीस दिनों तक प्रयोग में लाएं निश्चित ही चश्मा उतर जाएगा साथ थी आंखों की रोशनी भी तेज होगी।

०१- बादाम की गिरी, सौंफ बड़ी और मिश्री तीनों का पावडर बनाकर रोज एक चम्मच एक
       गिलास दूध के साथ रात को सोते समय लें।
०२- त्रिफला के पानी से आंखें धोने से आंखों की रोशनी तेज होती है।
०३- रोज सुबह नंगे पांव हरी घास पर घूमें।
०४- पैर के तलवों में सरसों का तेल मालिश करने से आखों की रोशनी तेज होती है।
०५- सुबह उठते ही मुंह में ठण्डा पानी भरकर मुंह फुलाकर आखों में छींटे मारने से आखें
       की रोशनी बढ़ती है।

इसका उपयोग अपने दैनिक जीवन में कर सकते हैं, आप इसका लाभ स्वयं ही देख सकते है यह है "अपराजिता स्तोत्र" अपराजिता का अर्थ है जो कभी पराजित नहीं होता |
यह एक देवी है जिसे अपराजिता के नाम से जाना जाता है य......ह देवी दस महा विद्याओं में से एक है, और ये देवी जैसे की कभी खुद पराजित नहीं होती ठीक वेसे ही अपने भक्त की भी हार नहीं होने देती है तो लीजिये अपराजिता स्तोत्र :-
"अथ अपराजिता स्तोत्रं प्रारभ्यते"
श्री गणेशाय नमः
विनियोग :- ॐ अस्य श्री अपराजिता स्तोत्र महामंत्रस्य वेदव्यास ऋषि: अनुष्टुपच्छन्दः क्लीं बीजं हूँ शक्तिः सर्वाभीष्ट सिध्यर्थे जपे
विनियोगः ||
मार्कंडेय उवाच :-
शृणुध्वं मुनयः सर्वे सर्वकामार्थ सिद्धिदाम | असिद्ध साधनीं देवीं वैष्णवीमपराजिताम ||
ध्यानम :-
नीलोत्पल-दल-श्यामां भुजंग भरणोज्वलाम, बालेन्दु-मौलीसदृशीं नयनत्रितयान्विताम |
शंखचक्रधरां देवीं वरदां भयशालिनिं, पिनोतुंगस्तनीं साध्वीं बद्ध पद्मसनाम शिवाम |
अजितां चिन्तयेद्देवीं वैष्णविमपराजिताम ||
शुद्धस्फटिक-संकाशां चंद्रकोटी-सुशीतलाम, अभयां वर-हस्तां च श्वेतवस्त्रैः अलंकृताम |
नानाभरण- संयुक्तां जयंतीमपराजिताम, त्रिसंध्यं यः स्मरेद्देविं ततः स्तोत्रं पठेत्सुधीः |
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमोस्त्वनन्ताय सहस्रशीर्षाय क्षीरार्णव शायिने, शेषभोग-पर्यंकाय गरुड़-वाहनाय अमोघाय अजाय अजिताय अपराजिताय पीतवाससे | वासुदेव-संकर्षण-प्रद्ध्युम्न-अनिरुद्ध-हयशीर्ष-मत्स्यकूर्म-वराह-नृसिंह-वामन-राम-राम वर-प्रद ! नमोस्तुते | असुर दैत्य-दानव-यक्ष-राक्षस-भूत-प्रेत-पिशाच-किन्नर-कूष्मांड सिद्ध-योगिनी डाकिनी स्कन्दपुरोगान ग्रहान्नक्षत्र ग्रहांश्चान्यान हन-हन पच-पच मथ-मथ विध्वंसय-विध्वंसय, विद्रावय-विद्रावय, चूर्णय-चूर्णय, शंखेन चक्रेण वज्रेण शूलेन गदया मुशलेन हलेन भस्मीकुरु कुरु स्वाहा || ओं सहस्रबाहो सहस्रप्रहरणायुध जय-जय विजय-विजय अजित-अमित अपराजित अप्रतिहत सहस्रनेत्र ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल विश्वरूप बहुरूप मधुसूदन महावराहच्युत महापुरुष पुरुषोत्तम पद्मनाभ वैकुंठानिरुद्ध-नारायण गोविन्द दामोदर हृषिकेश केशव सर्वासुरोत्सादन सर्वमन्त्रप्रभंजन सर्वदेवनमस्कृत सर्वबंधनविमोचन सर्वशत्रुवशंकर सर्वाहित्प्रदमन, सर्वग्रह निवारण सर्वरोगप्रशमन सर्वपाप-विनाशन जनार्द्दन नमोस्तुते स्वाहा | या इमां अपराजितां परमवैष्णवीं पठति सिद्धां जपति सिद्धां स्मरति सिद्धां महाविद्ध्यां पठति जपति स्मरति शृणोति धारयति कीर्तयती वा न तस्याग्निवायुर्वज्रोपलाशानिभयं नववर्षणि भयं न समुद्रभयं न ग्रहभयं न चौरभयं वा भवेत् क्वाचिद्रात्रान्धकारस्त्री राज कुविषोपविष गरल वशीकरण विद्वेषोच्चाटन वन्धनभयं वा न भवेत् | एतेर्मन्त्रैः सदाहतैः सिद्धैः संसिद्ध-पूजितैः, तद्ध्यथा ओं नमस्तेस्त्वनघे अजिते अपराजिते पठति सिद्धे जपति सिद्धे जपति सिद्धे स्मरति सिद्धे महाविद्ध्ये एकादशे उमे ध्रुवे अरुन्धति सावित्री गायत्री जातवेदसे मानस्तोके सरस्वती धरणी धारणी सौदामिनी अदिति दिति गौरी गान्धारी मातंगी कृष्णे यशोदे सत्यवादिनी ब्रह्मवादिनी काली कपाली करालानेत्रे सध्योपयाचितकरि जलगत स्थलगतमंत्रिक्षगतम वा मां सर्वभूतेभ्य-सर्वोपद्र्वेभ्य स्वाहा |
यस्यां प्रणश्यते पुष्पं गर्भो वा पतते यदि |
म्रियन्ते बालका यस्याः काकवन्ध्या च या भवेत् ||
भूर्जपत्रेत्विमां विद्यां लिखित्वा धारयेध्यदि |
एतेर्दोषेर्न लिप्येत सुभगा पुत्रिणी भवेत् ||
शस्त्रं वार्यते ह्येषा समरे काण्डवारिणी |
गुल्मशूलाक्षी-रोगाणां क्षिप्रं नाशयते व्यथाम ||
शिरोरोग ज्वराणाम च नाशिनी सर्वदेहिनाम ||
तद्ध्यथा- एकाहिक- द्वयाहिक-त्र्याहिक-चातुर्थीक अर्धमासिक-द्वेमासिक-त्रैमासिक-चातुर्मासिक-पञ्च-मासिकषाण्मासिक वात्तिक पैत्तिक, श्लैष्मिक-सान्निपातिक-सततज्वर-विषमज्वराणां नाशिनी सर्वदेहिनां ओं हर हर काली सर सर गौरी धम धम विद्ये आले ताले माले गन्धे पच पच विद्ये मथ मथ विद्ये नाशय पापं हर दुःस्वप्नं विनाशाय मातः रजनी सन्ध्ये दुन्दुभि-नादे मानसवेगे शंखिनी चक्रिणी वज्रिणी शूलिनी अपमृत्युविनाशिनी विश्वेश्वरी द्राविडि द्राविडि केशवदयिते पशुपतिसहिते दुन्दुभिनादे मानसवेगे दुन्दुभि-दमनी शवरि किराती मातंगी ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रें ह्रौं ह्रः ओं ओं श्रां श्रीं श्रुं श्रें श्रौं श्रः ॐ क्ष्वौ तुरु तुर स्वाहा |
ओं ये क्ष्मां द्विषन्ति प्रत्यक्षं परोक्षं वा तान दम दम मर्दय मर्दय पातय पातय शोषय शोषय उत्सादय उत्सादय ब्रह्माणि माहेश्वरि |
वैष्णवी वैनायकी कौमारी नारसिंही ऐन्द्री चान्द्री आग्न्येयी चामुंडे वारुणि वायव्ये रक्ष रक्ष प्रचंडविद्ध्ये ॐ इन्द्रोपेन्द्र भगिनी जये विजये शांतिपुष्टितुष्टिविवर्धिनी ||
कामांकुशे कामदुधे सर्वकामफलप्रदे सर्वभूतेषु मां प्रियं कुरु कुरु स्वाहा |
ओं आकर्षीणी आवेशनी तापिनी धरिणी धारिणी मदोन्मादिनी शोषिणी सम्मोहिनी महानीले नीलपताके महागौरी महाप्रिये महामान्द्रिका महासौरी महामायूरी आदित्यरश्मिनी जाह्नवी यमघण्टे किलि किलि चिन्तामणि सुरभि सुरोत्पन्ने सर्व-कामदुधे यथाभिलशितं कार्यं तन्मे सिध्यतु स्वाहा |
ओं भूः स्वाहा | ॐ भुवः स्वाहा | ॐ स्वः स्वः स्वाहा | ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा | ॐ यत एवागतं पापं तत्रैव प्रतिगच्छ्तु स्वाहा | ॐ बले बले महाबले असिद्धसाधिनी स्वाहा |
                                           || ईति श्री त्रैलोक्य विजया अपराजिता सम्पूर्णं ||

रविवार, 1 जनवरी 2012

परीक्षा में अच्छी सफलता के लिए जरूर करें ऐसा :-

स्टडी रूम का जीवन में काफी महत्व है। स्टडी रूम की दिशा, द्वार, उसकी सजावट आदि यदि वास्तुनुरूप हो तो छात्र मन लगाकर अध्ययन करता है। इसका सकारात्मक प्रभाव छात्र के जीवन पर भी पड़ता है। स्टडी रूम बनवाते समय इन बातों का ध्यान रखना चाहिए-
1- उत्तर-पूर्व व ईशान कोण सदैव ज्ञानवद्र्धक दिशाएं होती हैं। अध्ययन कक्ष ईशान कोण में बनाएं
     या पश्चिम या वायव्य कोण में भी बना सकते हैं लेकिन इनको बनाते समय इस बात का
     ध्यान रखें कि अध्ययन कक्ष का मुख या मुख्यद्वार उत्तर-पूर्व या ईशान कोण में ही हो।
2- अध्ययन कक्ष में विद्या की देवी सरस्वती और ईष्टदेव का चित्र अवश्य लगाएं। चित्रों में प्रेरक
    महापुरुषों के भी चित्र लगाना उत्तम है।
3- अध्ययन कक्ष में पुस्तकें सदैव नैऋत्य दिशा में बुक सेल्फ में रखें।
4- स्टडी टेबल के समीप या सामने दर्पण कदापि न लगाएं।
5- यदि नैऋत्य दिशा में पुस्तकें नहीं रख सकतें हैं तो दक्षिण या पश्चिम दिशा में बुक सेल्फ में
     रखें।
6- सदैव उत्तर, पूर्व या ईशान दिशा की ओर मुख करके पढऩा चाहिए।

शनिवार, 31 दिसंबर 2011

हिन्दू धर्मं के ३३ करोड़ देवी-देवताओं का रहस्य :-

भगवान, परमात्मा या ईश्वर एक है फिर भी शास्त्रों के अनुसार देवी-देवताओं की अनेक रूप बताए गए हैं। हिंदू धर्म के अनुसार 33 करोड़ देवी-देवता हैं, ऐसा माना जाता है। प्राचीन काल से असंख्य देवी-देवताओं को पूजने की परंपराएं चलन में है। इस संबंध में सामान्यत: सभी की जिज्ञासा रहती है कि क्या वाकई में हिंदू धर्म में 33 करोड़ देवी-देवता हैं।
दरअसल वेद-पुराणों के अनुसार 33 कोटि देवता बताए गए हैं। यहां कोटि शब्द ही बोलचाल की भाषा में करोड़ में बदल गया। अत: ऐसा माना जाने लगा कि हिंदूओं के 33 करोड़ देवी-देवता हैं, जबकि वास्तव में 33 कोटि देवी-देवता हैं।
33 कोटि में आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, इंद्र और प्रजापति शामिल है। जबकि कुछ विद्वानों के अनुसार इंद्र और प्रजापति के स्थान पर दो अश्विनी कुमार का नाम लिया जाता है।
आठ वसुओं में आप, ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष, प्रभाष शामिल हैं।
ग्यारह रुद्र इस प्रकार हैं- मनु, मन्यु, शिव, महत, ऋतुध्वज, महिनस, उम्रतेरस, काल, वामदेव, भव और धृत-ध्वज।
बारह आदित्य इस प्रकार हैं- अंशुमान, अर्यमन, इंद्र, त्वष्टा, धातु, पर्जन्य, पूषा, भग, मित्र, वरुण, वैवस्वत और विष्णु।

कपड़े पहनते समय सिक्के गिरे तो होगा कुछ अच्छा :-


काफी लोगों के साथ ऐसा होता है कि कहीं जाते वक्त या कपड़े पहनते समय पैसे गिर जाते हैं। ज्योतिष के अनुसार इसे शकुन माना जाता है और निकट भविष्य में इसके शुभ फल प्राप्त होते हैं।

शकुन और अपशकुन को ज्योतिष में काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। किसी भी महत्वपूर्ण कार्य को करने से पहले कुछ ना कुछ शकुन या अपशकुन अवश्य होते हैं उन्हें समझना पड़ता है। इन्हीं छोटी-छोटी घटनाओं में कार्य की सफलता या असफलता के संकेत छुपे होते हैं। आजकल ऐसी बातों को अंधविश्वास भी माना जाता है लेकिन ज्योतिष एक विज्ञान ही है और इसके अनुसार ऐसी घटनाओं का संबंध हमारे भविष्य से जुड़ा होता है।
अगर आप कहीं जा रहे हैं या आप कपड़े पहन रहे हैं और जेब से पैसे गिरें तो इसे शुभ संकेत मानना चाहिए। ऐसा होने पर निकट भविष्य में आपको धन प्राप्ति के योग बनते हैं। इसी प्रकार यदि किसी लेन-देन के समय आपके हाथ से पैसा छूट जाए तो भी इसे शुभ माना जाता है। साथ ही यदि कपड़े बदलते वक्त भी ऐसा हो तो शुभ होता है। इन घटनाओं का फल कितने समय में मिलेगा इसका कोई निश्चित दिन नहीं है लेकिन शुभ फल अवश्य ही प्राप्त होता है।

धन प्राप्त करनेका छोटा सा उपाय :-


पैसा या धन की चाहत प्राचीन काल से ही बनी हुई है। आज भी जैसे-जैसे आधुनिक सुविधाओं का विकास हो रहा है ठीक वैसी पैसों की आवश्यकता भी बढ़ती जा रही है। अधिकांश लोग परेशानियों के साथ जीवन यापन कर रहे हैं और पैसों की तंगी से जुझ रहे हैं। दिन-रात कड़ी मेहनत के बाद भी पर्याप्त धन अर्जित नहीं कर पाते। यदि आप भी पैसों की तंगी से त्रस्त हैं तो प्रतिदिन एक छोटा सा उपाय अपनाएं ;-

शास्त्रों के अनुसार गाय को बहुत पवित्र और पूजनीय माना गया है। इसी वजह से गौमाता से प्राप्त होने वाली सभी चीजों का वैद-पुराणों में काफी महत्व बताया गया है। अत: गाय का गोबर भी कई समस्याओं को समाप्त करने में सक्षम है। प्रतिदिन घर के बाहर किसी साफ और स्वस्थ स्थान पर गोबर से छोटा सा चौकर (लिपें) बनाएं। इस चौकार स्थान पर धन की देवी महालक्ष्मी के पैरों का निशान बनाएं। महालक्ष्मी के पैरा पर कंकू, चावल चढ़ाएं। इस प्रकार प्रतिदिन करें। ऐसा करने से आपके घर से पैसों की तंगी भाग जाएगी और महालक्ष्मी का वास हो जाएगा।
ध्यान रखें कि यह उपाय ऐसे स्थान पर करें जहां किसी के पैर न लगे। अन्यथा उपाय का प्रभाव कम हो जाएगा। इसके साथ अपनी मेहनत पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ करें। किसी भी प्रकार के अधार्मिक कर्मों से खूद को दूर रखें।

शनि को प्रसन्न करने के उपाय :-

इन दिनों शनि देव की चर्चाओं का दौर है क्योंकि विगत 15 नवंबर को शनि कन्या राशि छोड़कर तुला राशि में प्रवेश करेगा। शनि का राशि बदलना ज्योतिष के अनुसार बहुत बड़ी घटना है। इसका हर व्यक्ति पर सीधा पड़ेगा। अत: शनि को प्रसन्न करने के लिए सभी कुछ न कुछ उपाय अवश्य करें।
शनि की प्रसन्नता के लिए कई उपाय बताए जाते हैं लेकिन कुछ ऐसे सटीक उपाय है जिनमें से यदि आप कोई एक भी करते हैं तो शनि की कृपा प्राप्त हो जाती है। ये उपाय बेहद सरल हैं और कोई व्यक्ति आसानी से अपना सकता है।

शनि को प्रसन्न करने के उपाय-
०१:- शनि देव की प्रतिमा पर तेल चढ़ाएं। तेल चढ़ाने से पहले तेल में अपना मुख अवश्य देखें।
०२:- शनि स्तोत्र पाठ करें या मंत्र: ऊं शं शनैश्चराय नम: का जप करें।
०३:- शनि को प्रसन्न करने का सटीक उपाय है हनुमानजी की आराधना। पवनपुत्र के मंदिर में
        प्रतिदिन या शनि-मंगलवार को हनुमान चालिसा का पाठ करें।
०४:- शनिवार के दिन हनुमानजी के समक्ष तेल का दीपक लगाएं और मंत्र: सीताराम का जप करें।
०५:- शनिवार को शिवलिंग पर दूध और जल अर्पित करें। बिल्वपत्र चढ़ाएं।
०६:- पीपल के पेड़ में जल चढ़ाएं और सात परिक्रमा करें।
०७:- शनिवार के दिन शनि की काली वस्तुओं का दान करें।

इन सात उपायों में से कोई एक उपाय भी यदि आप शनिवार को करते हैं तो निश्चित ही आपको शनि की कृपा प्राप्त होगी। ध्यान रखें शनि बुरे कर्म करने वालों के लिए बहुत क्रूर रूप धारण कर लेते हैं। अत: धार्मिक कार्यों में ध्यान लगाएं और सद्कर्म करें।

घर में बांसूरी रखना होता है सुख-समृद्धि कारक :-

घर में सुख-समृद्धि बनी रहे इसके लिए सभी कई प्रकार के उपाय करते हैं। कुछ उपाय धर्म से संबंधित होते हैं तो कुछ ज्योतिष के और कुछ वास्तु से संबंधित। इन सभी उपायों को अपनाने से संभवत: घर से नेगेटिव ऊर्जा दूर हो जाती है। यदि आपके घर में कुछ नेगेटिव हो रहा है तो यह परंपरागत उपाय अपनाएं। पुराने समय से ही घर में सुख-समृद्धि और धन की पूर्ति बनाए रखने के लिए एक सटीक परंपरागत उपाय अपनाया जाता रहा है। यह उपाय है :-
घर में बांसूरी रखना । जिस घर में बांसूरी रखी होती है वहां के लोगों में परस्पर तो बना रहता है साथ ही श्रीकृष्ण की कृपा से सभी दुख और पैसों की तंगी भी दूर हो जाती है।
                                     शास्त्रों के अनुसार बांसूरी भगवान श्रीकृष्ण को अतिप्रिय है। वे सदा ही इसे अपने साथ ही रखते हैं। इसी वजह से इसे बहुत ही पवित्र और पूजनीय माना जाता है। साथ ही ऐसा माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण जब भी बांसूरी बजाते तो सभी गोपियां प्रेम वश प्रभु के समक्ष जा पहुंचती थीं। बांसूरी से निकलने वाला स्वर प्रेम बरसाने वाला ही है। इसी वजह से जिस घर में बांसूरी रखी होती है वहां प्रेम और धन की कोई कमी नहीं रहती है।
                                   सामान्यत: घर में बांस की हुई बांसूरी ही रखना चाहिए। वास्तु के अनुसार इस बांसूरी से घर के वातावरण में मौजूद समस्त नेगेटिव एनर्जी समाप्त हो जाती है और सकारात्मक ऊर्जा सक्रिय हो जाती है। परिवार के सदस्यों के विचार सकारात्मक होते हैं जिससे उन्हें सभी कार्यों में सफलता प्राप्त होती है।

श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्‌ :-

शुक्लांबरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम्।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत सर्वविघ्नोपशान्तये॥१॥


यस्य द्विरदवक्त्राद्याः पारिषद्याः परः शतम्‌।
विघ्नं निघ्नन्ति सततं विष्वकसेनं तमाश्रये॥२॥


व्यासं वसिष्ठनप्तारं शक्तेः पौत्रमकल्मषम्‌।
पराशरात्मजं वन्दे शुकतातं तपोनिधिम॥३॥


व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे।
नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नमः॥४॥

अविकाराय शुद्धाय नित्याय परमात्मने।
सदैकरूपरूपाय विष्णवे सर्वजिष्णवे॥५॥

यस्य स्मरणमात्रेण जन्मसंसारबन्धनात्।
विमुच्यते नमस्तस्मै विष्णवे प्रभविष्णवे॥६॥
ॐ नमो विष्णवे प्रभविष्णवे।

श्रीवैशम्पायन उवाच —
श्रुत्वा धर्मानशेषेण पावनानि च सर्वशः।
युधिष्ठिरः शान्तनवं पुनरेवाभ्यभाषत॥७॥


युधिष्ठिर उवाच —
किमेकं दैवतं लोके किं वाप्येकं परायणम्।
स्तुवन्तः कं कमर्चन्तः प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम्॥८॥

को धर्मः सर्वधर्माणां भवतः परमो मतः।
किं जपन्मुच्यते जन्तुर्जन्मसंसारबन्धनात्॥९॥

भीष्म उवाच —
जगत्प्रभुं देवदेवमनन्तं पुरुषोत्तमम्।
स्तुवन नामसहस्रेण पुरुषः सततोत्थितः॥१०॥

तमेव चार्चयन्नित्यं भक्त्या पुरुषमव्ययम्।
ध्यायन स्तुवन नमस्यंश्च यजमानस्तमेव च॥११॥


अनादिनिधनं विष्णुं सर्वलोकमहेश्वरम्।
लोकाध्यक्षं स्तुवन्नित्यं सर्वदुःखातिगो भवेत्॥१२॥

ब्रह्मण्यं सर्वधर्मज्ञं लोकानां कीर्तिवर्धनम्।
लोकनाथं महद्भूतं सर्वभूतभवोद्भवम्॥१३॥


एष मे सर्वधर्माणां धर्मोऽधिकतमो मतः।
यद्भक्त्या पुण्डरीकाक्षं स्तवैरर्चेन्नरः सदा॥१४॥

परमं यो महत्तेजः परमं यो महत्तपः।
परमं यो महद्ब्रह्म परमं यः परायणम्॥१५॥


पवित्राणां पवित्रं यो मङ्गलानां च मङ्गलम्।
दैवतं दैवतानां च भूतानां योऽव्ययः पिता॥१६॥

यतः सर्वाणि भूतानि भवन्त्यादियुगागमे।
यस्मिंश्च प्रलयं यान्ति पुनरेव युगक्षये॥१७॥


तस्य लोकप्रधानस्य जगन्नाथस्य भूपते।
विष्णोर्नामसहस्रं मे शृणु पापभयापहम्॥१८॥

यानि नामानि गौणानि विख्यातानि महात्मनः।
ऋषिभिः परिगीतानि तानि वक्ष्यामि भूतये॥१९॥


ऋषिर्नाम्नां सहस्रस्य वेदव्यासो महामुनिः।
छन्दोऽनुष्टुप् तथा देवो भगवान् देवकीसुतः॥२०॥

अमृतांशूद्भवो बीजं शक्तिर्देवकिनन्दनः।
त्रिसामा हृदयं तस्य शान्त्यर्थे विनियोज्यते॥२१॥


विष्णुं जिष्णुं महाविष्णुं प्रभविष्णुं महेश्वरम्‌।
अनेकरूप दैत्यान्तं नमामि पुरुषोत्तमं॥२२॥

॥विनयोग॥
श्रीवेदव्यास उवाच —
ॐ अस्य श्रीविष्णोर्दिव्यसहस्रनामस्तोत्रमहामन्त्रस्य॥
श्री वेदव्यासो भगवान ऋषिः। अनुष्टुप् छन्दः।
श्रीमहाविष्णुः परमात्मा श्रीमन्नारायणो देवता।
अमृतांशूद्भवो भानुरिति बीजम्‌।
देवकीनन्दनः स्रष्टेति शक्तिः।
उद्भवः क्षोभणो देव इति परमो मन्त्रः।
शङ्खभृन्नन्दकी चक्रीति कीलकम्।
शार्ङ्गधन्वा गदाधर इत्यस्त्रम्।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्य इति नेत्रम्‌।
त्रिसामा सामगः सामेति कवचम्।
आनन्दं परब्रह्मेति योनिः।
ऋतुः सुदर्शनः काल इति दिग्बन्धः॥
श्रीविश्वरूप इति ध्यानम्‌।
श्रीमहाविष्णुप्रीत्यर्थं सहस्रनामजपे विनियोगः॥

॥अथ न्यासः॥
ॐ शिरसि वेदव्यासऋषये नमः।
मुखे अनुष्टुप्छन्दसे नमः।
हृदि श्रीकृष्णपरमात्मदेवतायै नमः।
गुह्ये अमृतांशूद्भवो भानुरिति बीजाय नमः।
पादयोर्देवकीनन्दनः स्रष्टेति शक्तये नमः।
सर्वाङ्गे शङ्खभृन्नन्दकी चक्रीति कीलकाय नमः।
करसंपूटे मम श्रीकृष्णप्रीत्यर्थे जपे विनियोगाय नमः॥
इति ऋषयादिन्यासः॥

॥अथ करन्यासः॥
ॐ विश्वं विष्णुर्वषट्कार इत्यङ्गुष्ठाभ्यां नमः।
अमृतांशूद्भवो भानुरिति तर्जनीभ्यां नमः।
ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद्ब्रह्मेति मध्यमाभ्यां नमः।
सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्य इत्यनामिकाभ्यां नमः।
निमिषोऽनिमिषः स्रग्वीति कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्य इति करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
इति करन्यासः॥

॥अथ षडङ्गन्यासः॥
ॐ विश्वं विष्णुर्वषट्कार इति हृदयाय नमः।
अमृतांशूद्भवो भानुरिति शिरसे स्वाहा।
ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद्ब्रह्मेति शिखायै वषट्।
सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्य इति कवचाय हुम्।
निमिषोऽनिमिषः स्रग्वीति नेत्रत्रयाय वौषट्।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्य इत्यस्त्राय फट्।
इति षडङ्गन्यासः॥

॥अथ ध्यानम्।
क्षीरोदन्वत्प्रदेशे शुचिमणिविलसत्सैकतेर्मौक्तिकानां,
मालाकॢप्तासनस्थः स्फटिकमणिनिभैर्मौक्तिकैर्मण्डिताङ्गः।
शुभ्रैरभ्रैरदभ्रैरुपरिविरचितैर्मुक्तपीयूष वर्षैः,
आनन्दी नः पुनीयादरिनलिनगदा शङ्खपाणिर्मुकुन्दः॥१॥

भूः पादौ यस्य नाभिर्वियदसुरनिलश्चन्द्र सूर्यौ च नेत्रे
कर्णावाशाः शिरो द्यौर्मुखमपि दहनो यस्य वास्तेयमब्धिः।
अन्तःस्थं यस्य विश्वं सुरनरखगगोभोगिगन्धर्वदैत्यैः
चित्रं रंरम्यते तं त्रिभुवन वपुषं विष्णुमीशं नमामि॥२॥


ॐ शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
                               विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
                             वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्॥३॥


मेघश्यामं पीतकौशेयवासं श्रीवत्साङ्कं कौस्तुभोद्भासिताङ्गम्।
पुण्योपेतं पुण्डरीकायताक्षं विष्णुं वन्दे सर्वलोकैकनाथम्॥४॥

नमः समस्तभूतानामादिभूताय भूभृते।
अनेकरूपरूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे॥५॥

सशङ्खचक्रं सकिरीटकुण्डलं
                                     सपीतवस्त्रं सरसीरुहेक्षणम् |
सहारवक्षःस्थलकौस्तुभश्रियं
                      नमामि विष्णुं शिरसा चतुर्भुजम्॥६॥

छायायां पारिजातस्य हेमसिंहासनोपरि
                                           आसीनमम्बुदश्याममायताक्षमलंकृतम् |
चन्द्राननं चतुर्बाहुं श्रीवत्साङ्कित वक्षसं
                             रुक्मिणी सत्यभामाभ्यां सहितं कृष्णमाश्रये॥७॥

॥स्तोत्रम्‌ ॥
॥हरिः ॐ॥
विश्वं विष्णुर्वषट्कारो भूतभव्यभवत्प्रभुः।
भूतकृद्भूतभृद्भावो भूतात्मा भूतभावनः॥१॥

पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमा गतिः।
अव्ययः पुरुषः साक्षी क्षेत्रज्ञोऽक्षर एव च॥२॥


योगो योगविदां नेता प्रधानपुरुषेश्वरः।
नारसिंहवपुः श्रीमान् केशवः पुरुषोत्तमः॥३॥

सर्वः शर्वः शिवः स्थाणुर्भूतादिर्निधिरव्ययः।
संभवो भावनो भर्ता प्रभवः प्रभुरीश्वरः॥४॥


स्वयंभूः शम्भुरादित्यः पुष्कराक्षो महास्वनः।
अनादिनिधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः॥५॥

अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभोऽमरप्रभुः।
विश्वकर्मा मनुस्त्वष्टा स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः॥६॥


अग्राह्यः शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः।
प्रभूतस्त्रिककुब्धाम पवित्रं मङ्गलं परम्॥७॥

ईशानः प्राणदः प्राणो ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः।
हिरण्यगर्भो भूगर्भो माधवो मधुसूदनः॥८॥


ईश्वरो विक्रमी धन्वी मेधावी विक्रमः क्रमः।
अनुत्तमो दुराधर्षः कृतज्ञः कृतिरात्मवान्॥९॥


सुरेशः शरणं शर्म विश्वरेताः प्रजाभवः।
अहः संवत्सरो व्यालः प्रत्ययः सर्वदर्शनः॥१०॥


अजः सर्वेश्वरः सिद्धः सिद्धिः सर्वादिरच्युतः।
वृषाकपिरमेयात्मा सर्वयोगविनिःसृतः॥११॥

वसुर्वसुमनाः सत्यः समात्माऽसम्मितः समः।
अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः॥१२॥


रुद्रो बहुशिरा बभ्रुर्विश्वयोनिः शुचिश्रवाः।
अमृतः शाश्वत स्थाणुर्वरारोहो महातपाः॥१३॥


सर्वगः सर्वविद्भानुर्विष्वक्सेनो जनार्दनः।
वेदो वेदविदव्यङ्गो वेदाङ्गो वेदवित् कविः॥१४॥

लोकाध्यक्षः सुराध्यक्षो धर्माध्यक्षः कृताकृतः।
चतुरात्मा चतुर्व्यूहश्चतुर्दंष्ट्रश्चतुर्भुजः॥१५॥


भ्राजिष्णुर्भोजनं भोक्ता सहिष्णुर्जगदादिजः।
अनघो विजयो जेता विश्वयोनिः पुनर्वसुः॥१६॥


उपेन्द्रो वामनः प्रांशुरमोघः शुचिरूर्जितः।
अतीन्द्रः संग्रहः सर्गो धृतात्मा नियमो यमः॥१७॥


वेद्यो वैद्यः सदायोगी वीरहा माधवो मधुः।
अतीन्द्रियो महामायो महोत्साहो महाबलः॥१८॥

महाबुद्धिर्महावीर्यो महाशक्तिर्महाद्युतिः।
अनिर्देश्यवपुः श्रीमानमेयात्मा महाद्रिधृक्॥१९॥


महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवासः सतां गतिः।
अनिरुद्धः सुरानन्दो गोविन्दो गोविदां पतिः॥२०॥


मरीचिर्दमनो हंसः सुपर्णो भुजगोत्तमः।
हिरण्यनाभः सुतपाः पद्मनाभः प्रजापतिः॥२१॥


अमृत्युः सर्वदृक् सिंहः सन्धाता सन्धिमान् स्थिरः।
अजो दुर्मर्षणः शास्ता विश्रुतात्मा सुरारिहा॥२२॥

गुरुर्गुरुतमो धाम सत्यः सत्यपराक्रमः।
निमिषोऽनिमिषः स्रग्वी वाचस्पतिरुदारधीः॥२३॥


अग्रणीर्ग्रामणीः श्रीमान् न्यायो नेता समीरणः।
सहस्रमूर्धा विश्वात्मा सहस्राक्षः सहस्रपात्॥२४॥

आवर्तनो निवृत्तात्मा संवृतः संप्रमर्दनः।
अहः संवर्तको वह्निरनिलो धरणीधरः॥२५॥


सुप्रसादः प्रसन्नात्मा विश्वधृग्विश्वभुग्विभुः।
सत्कर्ता सत्कृतः साधुर्जह्नुर्नारायणो नरः॥२६॥

असंख्येयोऽप्रमेयात्मा विशिष्टः शिष्टकृच्छुचिः।
सिद्धार्थः सिद्धसंकल्पः सिद्धिदः सिद्धिसाधनः॥२७॥


वृषाही वृषभो विष्णुर्वृषपर्वा वृषोदरः।
वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुतिसागरः॥२८॥

सुभुजो दुर्धरो वाग्मी महेन्द्रो वसुदो वसुः।
नैकरूपो बृहद्रूपः शिपिविष्टः प्रकाशनः॥२९॥


ओजस्तेजोद्युतिधरः प्रकाशात्मा प्रतापनः।
ऋद्धः स्पष्टाक्षरो मन्त्रश्चन्द्रांशुर्भास्करद्युतिः॥३०॥

अमृतांशूद्भवो भानुः शशबिन्दुः सुरेश्वरः।
औषधं जगतः सेतुः सत्यधर्मपराक्रमः॥३१॥


भूतभव्यभवन्नाथः पवनः पावनोऽनलः।
कामहा कामकृत्कान्तः कामः कामप्रदः प्रभुः॥३२॥

युगादिकृद्युगावर्तो नैकमायो महाशनः।
अदृश्यो व्यक्तरूपश्च सहस्रजिदनन्तजित्॥३३॥


इष्टोऽविशिष्टः शिष्टेष्टः शिखण्डी नहुषो वृषः।
क्रोधहा क्रोधकृत्कर्ता विश्वबाहुर्महीधरः॥३४॥

अच्युतः प्रथितः प्राणः प्राणदो वासवानुजः।
अपांनिधिरधिष्ठानमप्रमत्तः प्रतिष्ठितः॥३५॥


स्कन्दः स्कन्दधरो धुर्यो वरदो वायुवाहनः।
वासुदेवो बृहद्भानुरादिदेवः पुरन्दरः॥३६॥

अशोकस्तारणस्तारः शूरः शौरिर्जनेश्वरः।
अनुकूलः शतावर्तः पद्मी पद्मनिभेक्षणः॥३७॥


पद्मनाभोऽरविन्दाक्षः पद्मगर्भः शरीरभृत्।
महर्द्धिरृद्धो वृद्धात्मा महाक्षो गरुडध्वजः॥३८॥

अतुलः शरभो भीमः समयज्ञो हविर्हरिः।
सर्वलक्षणलक्षण्यो लक्ष्मीवान् समितिञ्जयः॥३९॥


विक्षरो रोहितो मार्गो हेतुर्दामोदरः सहः।
महीधरो महाभागो वेगवानमिताशनः॥४०॥

उद्भवः क्षोभणो देवः श्रीगर्भः परमेश्वरः।
करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनो गुहः॥४१॥


व्यवसायो व्यवस्थानः संस्थानः स्थानदो ध्रुवः।
परर्द्धिः परमस्पष्टस्तुष्टः पुष्टः शुभेक्षणः॥४२॥

रामो विरामो विरजो मार्गो नेयो नयोऽनयः।
वीरः शक्तिमतां श्रेष्ठो धर्मो धर्मविदुत्तमः॥४३॥


वैकुण्ठः पुरुषः प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः।
हिरण्यगर्भः शत्रुघ्नो व्याप्तो वायुरधोक्षजः॥४४॥

ऋतुः सुदर्शनः कालः परमेष्ठी परिग्रहः।
उग्रः संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्वदक्षिणः॥४५॥

विस्तारः स्थावरस्थाणुः प्रमाणं बीजमव्ययम्।
अर्थोऽनर्थो महाकोशो महाभोगो महाधनः॥४६॥


अनिर्विण्णः स्थविष्ठोऽभूर्धर्मयूपो महामखः।
नक्षत्रनेमिर्नक्षत्री क्षमः क्षामः समीहनः॥४७॥

यज्ञ इज्यो महेज्यश्च क्रतुः सत्रं सतां गतिः।
सर्वदर्शी विमुक्तात्मा सर्वज्ञो ज्ञानमुत्तमम्॥४८॥


सुव्रतः सुमुखः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुहृत्।
मनोहरो जितक्रोधो वीरबाहुर्विदारणः॥४९॥

स्वापनः स्ववशो व्यापी नैकात्मा नैककर्मकृत्।
वत्सरो वत्सलो वत्सी रत्नगर्भो धनेश्वरः॥५०॥


धर्मगुब्धर्मकृद्धर्मी सदसत्क्षरमक्षरम्।
अविज्ञाता सहस्रांशुर्विधाता कृतलक्षणः॥५१॥

गभस्तिनेमिः सत्त्वस्थः सिंहो भूतमहेश्वरः।
आदिदेवो महादेवो देवेशो देवभृद्गुरुः॥५२॥


उत्तरो गोपतिर्गोप्ता ज्ञानगम्यः पुरातनः।
शरीरभूतभृद्भोक्ता कपीन्द्रो भूरिदक्षिणः॥५३॥

सोमपोऽमृतपः सोमः पुरुजित्पुरुसत्तमः।
विनयो जयः सत्यसंधो दाशार्हः सात्त्वतांपतिः॥५४॥


जीवो विनयिता साक्षी मुकुन्दोऽमितविक्रमः।
अम्भोनिधिरनन्तात्मा महोदधिशयोऽन्तकः॥५५॥

अजो महार्हः स्वाभाव्यो जितामित्रः प्रमोदनः।
आनन्दो नन्दनो नन्दः सत्यधर्मा त्रिविक्रमः॥५६॥


महर्षिः कपिलाचार्यः कृतज्ञो मेदिनीपतिः।
त्रिपदस्त्रिदशाध्यक्षो महाशृङ्गः कृतान्तकृत्॥५७॥

महावराहो गोविन्दः सुषेणः कनकाङ्गदी।
गुह्यो गभीरो गहनो गुप्तश्चक्रगदाधरः॥५८॥


वेधाः स्वाङ्गोऽजितः कृष्णो दृढः संकर्षणोऽच्युतः।
वरुणो वारुणो वृक्षः पुष्कराक्षो महामनाः॥५९॥

भगवान् भगहाऽऽनन्दी वनमाली हलायुधः।
आदित्यो ज्योतिरादित्यः सहिष्णुर्गतिसत्तमः॥६०॥


सुधन्वा खण्डपरशुर्दारुणो द्रविणप्रदः।
दिवःस्पृक् सर्वदृग्व्यासो वाचस्पतिरयोनिजः॥६१॥

त्रिसामा सामगः साम निर्वाणं भेषजं भिषक्।
संन्यासकृच्छमः शान्तो निष्ठा शान्तिः परायणम्॥६२॥


शुभाङ्गः शान्तिदः स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः।
गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः॥६३॥

अनिवर्ती निवृत्तात्मा संक्षेप्ता क्षेमकृच्छिवः।
श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीपतिः श्रीमतांवरः॥६४॥


श्रीदः श्रीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः।
श्रीधरः श्रीकरः श्रेयः श्रीमाँल्लोकत्रयाश्रयः॥६५॥


स्वक्षः स्वङ्गः शतानन्दो नन्दिर्ज्योतिर्गणेश्वरः।
विजितात्माऽविधेयात्मा सत्कीर्तिश्छिन्नसंशयः॥६६॥

उदीर्णः सर्वतश्चक्षुरनीशः शाश्वतस्थिरः।
भूशयो भूषणो भूतिर्विशोकः शोकनाशनः॥६७॥


अर्चिष्मानर्चितः कुम्भो विशुद्धात्मा विशोधनः।
अनिरुद्धोऽप्रतिरथः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः॥६८॥

कालनेमिनिहा वीरः शौरिः शूरजनेश्वरः।
त्रिलोकात्मा त्रिलोकेशः केशवः केशिहा हरिः॥६९॥


कामदेवः कामपालः कामी कान्तः कृतागमः।
अनिर्देश्यवपुर्विष्णुर्वीरोऽनन्तो धनंजयः॥७०॥

ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद् ब्रह्मा ब्रह्म ब्रह्मविवर्धनः।
ब्रह्मविद् ब्राह्मणो ब्रह्मी ब्रह्मज्ञो ब्राह्मणप्रियः॥७१॥


महाक्रमो महाकर्मा महातेजा महोरगः।
महाक्रतुर्महायज्वा महायज्ञो महाहविः॥७२॥

स्तव्यः स्तवप्रियः स्तोत्रं स्तुतिः स्तोता रणप्रियः।
पूर्णः पूरयिता पुण्यः पुण्यकीर्तिरनामयः॥७३॥


मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेता वसुप्रदः।
वसुप्रदो वासुदेवो वसुर्वसुमना हविः॥७४॥

सद्गतिः सत्कृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्परायणः।
शूरसेनो यदुश्रेष्ठः सन्निवासः सुयामुनः॥७५॥


भूतावासो वासुदेवः सर्वासुनिलयोऽनलः।
दर्पहा दर्पदो दृप्तो दुर्धरोऽथापराजितः॥७६॥

विश्वमूर्तिर्महामूर्तिर्दीप्तमूर्तिरमूर्तिमान्।
अनेकमूर्तिरव्यक्तः शतमूर्तिः शताननः॥७७॥


एको नैकः सवः कः किं यत् तत्पदमनुत्तमम्।
लोकबन्धुर्लोकनाथो माधवो भक्तवत्सलः॥७८॥

सुवर्णवर्णो हेमाङ्गो वराङ्गश्चन्दनाङ्गदी।
वीरहा विषमः शून्यो घृताशीरचलश्चलः॥७९॥


अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृक्।
सुमेधा मेधजो धन्यः सत्यमेधा धराधरः॥८०॥

तेजोवृषो द्युतिधरः सर्वशस्त्रभृतां वरः।
प्रग्रहो निग्रहो व्यग्रो नैकशृङ्गो गदाग्रजः॥८१॥


चतुर्मूर्तिश्चतुर्बाहुश्चतुर्व्यूहश्चतुर्गतिः।
चतुरात्मा चतुर्भावश्चतुर्वेदविदेकपात्॥८२॥

समावर्तोऽनिवृत्तात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः।
दुर्लभो दुर्गमो दुर्गो दुरावासो दुरारिहा॥८३॥


शुभाङ्गो लोकसारङ्गः सुतन्तुस्तन्तुवर्धनः।
इन्द्रकर्मा महाकर्मा कृतकर्मा कृतागमः॥८४॥

उद्भवः सुन्दरः सुन्दो रत्ननाभः सुलोचनः।
अर्को वाजसनः शृङ्गी जयन्तः सर्वविज्जयी॥८५॥


सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्यः सर्ववागीश्वरेश्वरः।
महाह्रदो महागर्तो महाभूतो महानिधिः॥८६॥

कुमुदः कुन्दरः कुन्दः पर्जन्यः पावनोऽनिलः।
अमृतांशोऽमृतवपुः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः॥८७॥


सुलभः सुव्रतः सिद्धः शत्रुजिच्छत्रुतापनः।
न्यग्रोधोऽदुम्बरोऽश्वत्थश्चाणूरान्ध्रनिषूदनः॥८८॥

सहस्रार्चिः सप्तजिह्वः सप्तैधाः सप्तवाहनः।
अमूर्तिरनघोऽचिन्त्यो भयकृद्भयनाशनः॥८९॥


अणुर्बृहत्कृशः स्थूलो गुणभृन्निर्गुणो महान्।
अधृतः स्वधृतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्धनः॥९०॥

भारभृत् कथितो योगी योगीशः सर्वकामदः।
आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः॥९१॥


धनुर्धरो धनुर्वेदो दण्डो दमयिता दमः।
अपराजितः सर्वसहो नियन्ताऽनियमोऽयमः॥९२॥

सत्त्ववान् सात्त्विकः सत्यः सत्यधर्मपरायणः।
अभिप्रायः प्रियार्होऽर्हः प्रियकृत् प्रीतिवर्धनः॥९३॥


विहायसगतिर्ज्योतिः सुरुचिर्हुतभुग्विभुः।
रविर्विरोचनः सूर्यः सविता रविलोचनः॥९४॥

अनन्तो हुतभुग्भोक्ता सुखदो नैकजोऽग्रजः।
अनिर्विण्णः सदामर्षी लोकाधिष्ठानमद्भुतः॥९५॥


सनात्सनातनतमः कपिलः कपिरव्ययः।
स्वस्तिदः स्वस्तिकृत्स्वस्ति स्वस्तिभुक्स्वस्तिदक्षिणः॥९६॥


अरौद्रः कुण्डली चक्री विक्रम्यूर्जितशासनः।
शब्दातिगः शब्दसहः शिशिरः शर्वरीकरः॥९७॥


अक्रूरः पेशलो दक्षो दक्षिणः क्षमिणांवरः।
विद्वत्तमो वीतभयः पुण्यश्रवणकीर्तनः॥९८॥

उत्तारणो दुष्कृतिहा पुण्यो दुःस्वप्ननाशनः।
वीरहा रक्षणः सन्तो जीवनः पर्यवस्थितः॥९९॥


अनन्तरूपोऽनन्तश्रीर्जितमन्युर्भयापहः।
चतुरश्रो गभीरात्मा विदिशो व्यादिशो दिशः॥१००॥

अनादिर्भूर्भुवो लक्ष्मीः सुवीरो रुचिराङ्गदः।
जननो जनजन्मादिर्भीमो भीमपराक्रमः॥१०१॥


आधारनिलयोऽधाता पुष्पहासः प्रजागरः।
ऊर्ध्वगः सत्पथाचारः प्राणदः प्रणवः पणः॥१०२॥

प्रमाणं प्राणनिलयः प्राणभृत्प्राणजीवनः।
तत्त्वं तत्त्वविदेकात्मा जन्ममृत्युजरातिगः॥१०३॥


भूर्भुवःस्वस्तरुस्तारः सविता प्रपितामहः।
यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञाङ्गो यज्ञवाहनः॥१०४॥

यज्ञभृद् यज्ञकृद् यज्ञी यज्ञभुग् यज्ञसाधनः।
यज्ञान्तकृद् यज्ञगुह्यमन्नमन्नाद एव च॥१०५॥


आत्मयोनिः स्वयंजातो वैखानः सामगायनः।
देवकीनन्दनः स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः॥१०६॥

शङ्खभृन्नन्दकी चक्री शार्ङ्गधन्वा गदाधरः।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्यः सर्वप्रहरणायुधः॥१०७॥

सर्वप्रहरणायुध ॐ नम इति।

वनमाली गदी शार्ङ्गी शङ्खी चक्री च नन्दकी।
श्रीमान् नारायणो विष्णुर्वासुदेवोऽभिरक्षतु॥१०८॥

श्री वासुदेवोऽभिरक्षतु ॐ नम इति।

॥उत्तरन्यासः॥
भीष्म उवाच —
इतीदं कीर्तनीयस्य केशवस्य महात्मनः।
नाम्नां सहस्रं दिव्यानामशेषेण प्रकीर्तितम्॥१॥

य इदं शृणुयान्नित्यं यश्चापि परिकीर्तयेत्।
नाशुभं प्राप्नुयात्किंचित्सोऽमुत्रेह च मानवः॥२॥


वेदान्तगो ब्राह्मणः स्यात्क्षत्रियो विजयी भवेत्।
वैश्यो धनसमृद्धः स्याच्छूद्रः सुखमवाप्नुयात्॥३॥

धर्मार्थी प्राप्नुयाद्धर्ममर्थार्थी चार्थमाप्नुयात्।
कामानवाप्नुयात्कामी प्रजार्थी चाप्नुयात्प्रजाम्॥४॥


भक्तिमान् यः सदोत्थाय शुचिस्तद्गतमानसः।
सहस्रं वासुदेवस्य नाम्नामेतत्प्रकीर्तयेत्॥५॥

यशः प्राप्नोति विपुलं ज्ञातिप्राधान्यमेव च।
अचलां श्रियमाप्नोति श्रेयः प्राप्नोत्यनुत्तमम्॥६॥


न भयं क्वचिदाप्नोति वीर्यं तेजश्च विन्दति।
भवत्यरोगो द्युतिमान्बलरूपगुणान्वितः॥७॥

रोगार्तो मुच्यते रोगाद्बद्धो मुच्येत बन्धनात्।
भयान्मुच्येत भीतस्तु मुच्येतापन्न आपदः॥८॥


दुर्गाण्यतितरत्याशु पुरुषः पुरुषोत्तमम्।
स्तुवन्नामसहस्रेण नित्यं भक्तिसमन्वितः॥९॥

वासुदेवाश्रयो मर्त्यो वासुदेवपरायणः।
सर्वपापविशुद्धात्मा याति ब्रह्म सनातनम्॥१०॥


न वासुदेवभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित्।
जन्ममृत्युजराव्याधिभयं नैवोपजायते॥११॥

इमं स्तवमधीयानः श्रद्धाभक्तिसमन्वितः।
युज्येतात्मसुखक्षान्तिश्रीधृतिस्मृतिकीर्तिभिः॥१२॥


न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभा मतिः।
भवन्ति कृत पुण्यानां भक्तानां पुरुषोत्तमे॥१३॥

द्यौः सचन्द्रार्कनक्षत्रा खं दिशो भूर्महोदधिः।
वासुदेवस्य वीर्येण विधृतानि महात्मनः॥१४॥


ससुरासुरगन्धर्वं सयक्षोरगराक्षसम्।
जगद्वशे वर्ततेदं कृष्णस्य सचराचरम्॥१५॥

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिः सत्त्वं तेजो बलं धृतिः।
वासुदेवात्मकान्याहुः क्षेत्रं क्षेत्रज्ञ एव च॥१६॥


सर्वागमानामाचारः प्रथमं परिकल्पते।
आचारप्रभवो धर्मो धर्मस्य प्रभुरच्युतः॥१७॥

ऋषयः पितरो देवा महाभूतानि धातवः।
जङ्गमाजङ्गमं चेदं जगन्नारायणोद्भवम्॥१८॥


योगो ज्ञानं तथा सांख्यं विद्याः शिल्पादि कर्म च।
वेदाः शास्त्राणि विज्ञानमेतत्सर्वं जनार्दनात्॥१९॥


एको विष्णुर्महद्भूतं पृथग्भूतान्यनेकशः।
त्रींल्लोकान्व्याप्य भूतात्मा भुङ्क्ते विश्वभुगव्ययः॥२०॥


इमं स्तवं भगवतो विष्णोर्व्यासेन कीर्तितम्।
पठेद्य इच्छेत्पुरुषः श्रेयः प्राप्तुं सुखानि च॥२१॥

विश्वेश्वरमजं देवं जगतः प्रभुमव्ययम्।
भजन्ति ये पुष्कराक्षं न ते यान्ति पराभवम्॥२२॥

न ते यान्ति पराभवम ॐ नम इति।

अर्जुन उवाच —
पद्मपत्रविशालाक्ष पद्मनाभ सुरोत्तम।
भक्तानामनुरक्तानां त्राता भव जनार्दन॥२३॥

श्रीभगवानुवाच —
यो मां नामसहस्रेण स्तोतुमिच्छति पाण्डव।
सोहऽमेकेन श्लोकेन स्तुत एव न संशयः॥२४॥
स्तुत एव न संशय ॐ नम इति।


व्यास उवाच —
वासनाद्वासुदेवस्य वासितं भुवनत्रयम्।
सर्वभूतनिवासोऽसि वासुदेव नमोऽस्तु ते॥२५॥
श्री वासुदेव नमोऽस्तुत ॐ नम इति।

पार्वत्युवाच —
केनोपायेन लघुना विष्णोर्नामसहस्रकम।
पठ्यते पण्डितैर्नित्यं श्रोतुमिच्छाम्यहं प्रभो॥२६॥

ईश्वर उवाच —
श्रीराम राम रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्रनाम तत्तुल्यं राम नाम वरानने॥२७॥
श्रीरामनाम वरानन ॐ नम इति।

ब्रह्मोवाच —
नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रमूर्तये
                                  सहस्रपादाक्षिशिरोरुबाहवे।
सहस्रनाम्ने पुरुषाय शाश्वते
                        सहस्रकोटि युगधारिणे नमः॥२८॥
सहस्रकोटि युगधारिणे ॐ नम इति।

सञ्जय उवाच —
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥२९॥

श्रीभगवानुवाच —
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥३०॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥३१॥

आर्ताः विषण्णाः शिथिलाश्च भीताः
                                     घोरेषु च व्याधिषु वर्तमानाः।
संकीर्त्य नारायणशब्दमात्रं
                           विमुक्तदुःखाः सुखिनो भवन्तु॥३२॥

कायेन वाचा मनसेंद्रियैर्वा
                                बुद्ध्यात्मना वा प्रकृतिस्वभावात्।
करोमि यद्यत् सकलं परस्मै
                                      नारायणायेति समर्पयामि॥३३॥
              

                                      ॥इति श्रीविष्णोर्दिव्यसहस्रनामस्तोत्रं संपूर्णम्॥
                                                                ॥ॐ तत सत॥

|| श्री गायत्री शाप विमोचनम् ||

०१:- ॐ अस्य श्री गायत्री। ब्रह्मशाप विमोचन मन्त्रस्य। ब्रह्मा ऋषिः। गायत्री छन्दः। भुक्ति मुक्तिप्रदा ब्रह्मशाप विमोचनी गायत्री शक्तिः देवता। ब्रह्म शाप विमोचनार्थे जपे विनियोगः॥
ॐ गायत्री ब्रह्मेत्युपासीत यद्रूपं ब्रह्मविदो विदुः। तां पश्यन्ति धीराः सुमनसां वाचग्रतः।
ॐ वेदान्त नाथाय विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमही। तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात्।
ॐ गायत्री त्वं ब्रह्म शापत् विमुक्ता भव॥

०२:- ॐ अस्य श्री वसिष्ट शाप विमोचन मन्त्रस्य निग्रह अनुग्रह कर्ता वसिष्ट ऋषि। विश्वोद्भव गायत्री छन्दः। वसिष्ट अनुग्रहिता गायत्री शक्तिः देवता। वसिष्ट शाप विमोचनार्थे जपे विनियोगः॥
ॐ सोहं अर्कमयं ज्योतिरहं शिव आत्म ज्योतिरहं शुक्रः सर्व ज्योतिरसः अस्म्यहं। (इति युक्त्व
योनि मुद्रां प्रदर्श्य गायत्री त्रयं बारं )
ॐ देवी गायत्री त्वं वसिष्ट शापत् विमुक्तो भव॥

०३:- ॐ अस्य श्री विश्वामित्र शाप विमोचन मन्त्रस्य नूतन सृष्टि कर्ता विश्वामित्र ऋषि।
वाग्देहा गायत्री छन्दः। विश्वामित्र अनुग्रहिता गायत्री शक्तिः देवता। विश्वामित्र शाप विमोचनार्थे जपे
विनियोगः॥

ॐ गायत्री भजांयग्नि मुखीं विश्वगर्भां यदुद्भवाः देवाश्चक्रिरे विश्वसृष्टिं तां कल्याणीं
इष्टकरीं प्रपद्ये। यन्मुखान्निसृतो अखिलवेद गर्भः।


शाप युक्ता तु गायत्री सफला न कदाचन।
शापत् उत्तरीत सा तु मुक्ति भुक्ति फल प्रदा

॥प्रार्थना॥ :-
ब्रह्मरूपिणी गायत्री दिव्ये सन्ध्ये सरस्वती।
अजरे अमरे चैव ब्रह्मयोने नमोऽस्तुते।

ब्रह्म शापत् विमुक्ता भव।
वसिष्ट शापत् विमुक्ता भव।
विश्वामित्र शापत् विमुक्ता भव॥

सूर्याष्टकं स्तोत्रं :-

सांब उवाच :-
आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसीद ममभास्कर ।
दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमोऽस्तु ते ॥

सप्ताऽश्वरथमारूढं प्रचंडं कश्यपात्मजं ।
श्वेतपद्मधरं देवं तं सूर्यंम् प्रणमाम्यहम ॥

लोहितं रथमारूढं सर्वलोकपितामहं ।
महापापहरं देवं तं सूर्यम् प्रणमाम्यहम ॥

त्रैगुण्यं च महाशूरं ब्रह्मविष्णुमहेश्वरं ।
महापापहरं देवं तं सूर्यंम् प्रणमाम्यहम ॥

बृंहितम् तेज:पुंजं च वायुमाकाशमेव च ।
प्रभुं च सर्वलोकानाम् तं सूर्यंम् प्रणमाम्यहम ॥

बंधूकपुष्पसंकाशं हारकुण्डल भूषितं ।
एकचक्रधरं देवं तं सूर्यंम् प्रणमाम्यहम ॥

तं सूर्यम् जगत्कर्तारं महातेजप्रदीपनं ।
महापापहरं देवं तं सूर्यंम् प्रणमाम्यहम ॥

तं सूर्यम् जगतां नाथं ज्ञानविज्ञानमोक्षदं ।
महापापहरं देवं तं सूर्यंम् प्रणमाम्यहम ॥

सुर्याष्टकं पठेन्नित्यं गृहपीडा प्रणाशनम् ।
अपुत्रो लभते पुत्रं दरिद्रो धनवन भवेत ॥
आमिषं मधुपानं य: करोति रवेर्दिने ।
सप्तजन्म भवेद्रोगी प्रतिजन्म दरिद्रता ॥

स्त्रीतैलमधुमांसानि यस्त्यजेत्तु रवेर्दिने ।
न व्याधी: शोकदारिद्र्यं सूर्यलोकं स गच्छति ॥

।इति सुर्याष्टकं स्तोत्रं संपूर्णं ।

इसं सूर्याष्टकं का जो भी श्रद्धा पूर्वक पाठ करता है उसकी सभी ग्रहों से सम्बंधित पीड़ा समाप्त हो जाती है इससे पुत्र हीन को पुत्र प्राप्त होता है दरिद्री को धन प्राप्त होता  है

|| श्री दुर्गा आपदुद्धाराष्टकम् ||


नमस्ते शरण्ये शिवे सानुकम्पे नमस्ते जगद्व्यापिके विश्वरूपे |
नमस्ते जगद्वन्द्यपादारविन्दे नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||१||

नमस्ते जगच्चिन्त्यमानस्वरूपे नमस्ते महायोगिविज्ञानरूपे |
नमस्ते नमस्ते सदानन्द रूपे नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||२||

अनाथस्य दीनस्य तृष्णातुरस्य भयार्तस्य भीतस्य बद्धस्य जन्तोः |
त्वमेका गतिर्देवि निस्तारकर्त्री नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||३||

अरण्ये रणे दारुणे शुत्रुमध्ये जले सङ्कटे राजग्रेहे प्रवाते |
त्वमेका गतिर्देवि निस्तार हेतुर्नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||४||

अपारे महदुस्तरेऽत्यन्तघोरे विपत् सागरे मज्जतां देहभाजाम् |
त्वमेका गतिर्देवि निस्तारनौका नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||५||

नमश्चण्डिके चण्डोर्दण्डलीलासमुत्खण्डिता खण्डलाशेषशत्रोः |
त्वमेका गतिर्विघ्नसन्दोहहर्त्री नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||६||

त्वमेका सदाराधिता सत्यवादिन्यनेकाखिला क्रोधना क्रोधनिष्ठा |
इडा पिङ्गला त्वं सुषुम्ना च नाडी नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||७||

नमो देवि दुर्गे शिवे भीमनादे सदासर्वसिद्धिप्रदातृस्वरूपे |
विभूतिः सतां कालरात्रिस्वरूपे नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ||८||

शरणमसि सुराणां सिद्धविद्याधराणां मुनिदनुजवराणां व्याधिभिः पीडितानाम् |
नृपतिगृहगतानां दस्युभिस्त्रासितानां त्वमसि शरणमेका देवि दुर्गे प्रसीद ||९||

|| इति सिद्धेश्वरतन्त्रे हरगौरीसंवादे आपदुद्धाराष्टकस्तोत्रं सम्पूर्णम् ||